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दशनाम गोस्वामियों का दर्शन के क्षेत्र में योगदान



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दशनाम गोस्वामी लोग मूलतः शैव हैं । शैव लोग असल में संन्यास परम्परा के अनुपालक हैं । शैव परम्परा अति प्राचीन है । इस परम्परा में ही एक और उप परम्परा का जन्म हुआ और उसने अद्वैत ब्रह्म विद्या के सिद्धांत का प्रतिपादन किया । ऐसे ग्यारह शैव संन्यासी इस श्रृंखला में हुए जिनके नाम थे---सत्युग में नारायण , ब्रह्मा एवं रूद्र , त्रेतायुग में वशिष्ठ , शक्ति एवं पराशर , द्वापरयुग में वेदव्यास एवं शुकदेव , कलियुग में गौड़पाद , गोविंदपाद एवं शंकरपाद (आदिशंकराचार्य ) । इस श्रृंखला में आदि शंकराचार्य का नाम उभरकर सबसे पहले आता है हालांकि अद्वैत ब्रह्म विद्या का सिद्धांत आदिशंकराचार्य से पहले भी था और उनके बाद भी रहा। बहुदेववादी भारत में पहली बार ईश्वर को एक मानकर दर्शन के क्षेत्र में एकेश्वरवाद की स्थापना की गई । हमारे शास्त्रों में भी कहा गया है कि "ईश्वर एक है लेकिन विद्वान लोग उसे विभिन्न नामों से जानते हैं ।" ऋग्वेद में कहा गया है :-- "इन्द्रं मित्र वरुणं अग्निं आहु: अथो दिव्य: स: सुपर्ण: गरुत्मान् । एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति अग्निं यमं मातरिश्वानम् आहु: ।।" -- ऋग्वेद 1.184. 46 [ Truth is one , the wise call Him by many names --- they call Him Indra , Mitra , Varuna , Agni , Yama , Matarishva . He is called Suparna , Garutman ] जब आदि शंकराचार्य ने अपना अद्वैत वेदांत का सिद्धांत लोगों के सम्मुख रखा तो दर्शन के क्षेत्र में खलबली मच गई । बहुत से वैष्णव विद्वान उनके विरुद्ध खड़े हो गये तथा उन्होंने अपने - अपने सिद्धांत प्रस्तुत किये । रामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैतवाद , निम्बार्काचार्य ने द्वैताद्वैतवाद , विष्णु स्वामी ने शुद्धाद्वैतवाद और माध्वाचार्य ने द्वैतवाद का सिद्धांत दर्शन के क्षेत्र में रखा । अद्वैत वेदांत का सिद्धांत अति गूढ़ दर्शन है जिसको समझना और समझाना आसान नहीं है । संक्षेप में इसको इस प्रकार समझाया जा सकता है ---"ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या है । ब्रह्म और जीव में कोई भेद नहीं है, किंतु माया के वशीभूत होकर जीव ब्रह्म को पहचान नहीं पाता है ।" आदि शंकराचार्य के शिष्यों ने भी इस सिद्धांत को आगे बढ़ाया और इस क्षेत्र में विद्वानों की एक लम्बी श्रृंखला बनती चली गई । ऐसे विद्वानों के नाम हैं-- सुरेश्वराचार्य, आनंद गिरि , द्रविड़ाचार्य , पद्मपादाचार्य , सर्वज्ञानत्ममुनि , विमुक्तात्मा , चित्सुखाचार्य , अमलानंद , विद्यारण्य , मधुसूदन सरस्वती , सदानंद यति इत्यादि। ध्यान देने की बात यह है कि बहुत से गोस्वामी लोग इस अद्वैतवाद सिद्धांत में विश्वास करते हैं किंतु सभी गोस्वामी लोग अब अद्वैत मतावलम्बी नहीं हैं ।अधिकांश गोस्वामी लोग भगवान शिव को परमब्रह्म मानते हैं और भगवान शिव की सगुण और निर्गुण दोनों रूपों में पूजा करते हैं । गोस्वामी लोग एकेश्वरवादी भी हैं और बहुदेववादी भी । दशनाम गोस्वामियों का यही दर्शन है और यही सोच है । इसके अतिरिक्त ब्रह्मवाद , आत्मवाद , नियतिवाद , कर्मवाद , पुनर्जन्म , मोक्ष इत्यादि भी गोस्वामियों के दर्शन के अंग हैं । गोस्वामी लोग आस्तिक हैं अर्थात ये ईश्वर ( परमात्मा ) को मानते हैं भले ही इनके लिए शिव ही ईश्वर ( परमात्मा ) हैं । गोस्वामी लोग परमात्मा के साथ - साथ आत्मा के अस्तित्व को भी स्वीकार करते हैं । ये मानते हैं कि आत्मा तो परमात्मा का सूक्ष्म रूप है । गोस्वामी लोग यह स्वीकार करते हैं कि जीवन की यात्रा में घटनाएं नियति पर आधारित हैं । जो होना है वह होकर रहेगा । उसे कोई रोक नहीं सकता । कर्मवाद और पुनर्जन्म भी नियतिवाद पर आधारित हैं । अच्छे - बुरे कर्मों के कारण जीव को बार - बार जन्म लेना पड़ता है । इसे पुनर्जन्म का सिद्धांत कहते हैं । जब आत्मा ( जीव ) को बार - बार जन्म लेने से मुक्ति मिल जाती है उस अवस्था को मोक्ष कहा जाता है । शैव संन्यासियों ( गोस्वामी लोगों ) का मानना है कि कर्मकांड ( यज्ञ , हवनादि ) के द्वारा नहीं बल्कि ज्ञान के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है । सच्चा ज्ञान ही मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है । यही सब गोस्वामियों के दर्शन का निचोड़ है । यही बात शैवों ( गोस्वामियों ) को वैष्णवों ( ब्राह्मणों ) से अलग करती है ।

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