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इंदिरा द्वारा करवाया गया साधुओ का #हत्याकांड का काला दिन, 7 नवंबर 1966 कार्तिक सुद अष्टमी गोपाष्टमी दिल्ली गौ भक्तो का बलिदान, भारत के इतिहास में कई प्रकार के काले पन्ने भी दर्ज हैं. इन्हीं काले पन्नों में से एक है, बाकायदा सरकारी आदेश पर संसद भवन के सामने दिनदहाड़े, सरेआम सैकड़ों लोगों की हत्या. और ये लोग कौन थे ? कोई आतंकी संगठन वाले, या उत्पाती, अथवा सरकारी संपत्ति लूटपाट या नाश करने वाले ? नहीं ! इनमें से कोई भी नहीं. ये लोग थे गौ-भक्त, गौ-रक्षक, साधु-संत और गौ-पालक. आखिर ऐसा क्या हुआ कि इंदिरा गाँधी सरकार ने ठीक गोपाष्टमी के दिन सैकड़ों हिंदुओं की इस प्रकार सरेआम हत्या कर दी थी? स्वामी करपात्री महाराज कौन थे, और उनका श्राप क्या था ? आईये आगे पढ़ें ! |
7 नवंबर 1966 का था वह काला दिन संसद भवन के सामने कई हिंदूवादी संगठनों के कार्यकर्ता, स्वयं शंकराचार्य तथा जाने-माने साधु-संत, एवं हजारों की संख्या में गौ-पालक, गौ-भक्त उपस्थित थे जो संविधान की धारा 48 में संशोधन की माँग कर रहे थे. इस धारा के अनुसार गौहत्या पर प्रतिबन्ध लगाने या नहीं लगाने का अधिकार राज्य सरकारों के पास है, जबकि देश भर में चल रही गौ-हत्याओं एवं तस्करी को लेकर शंकराचार्य सहिह्त कई संतों ने इंदिरा सरकार से माँग की थी कि केन्द्र इस सम्बन्ध में क़ानून बनाए और पूरे देश में गौवंश के वध पर प्रतिबन्ध लगाया जाए. हिन्दू पंचांग के अनुसार उस दिन विक्रम संवत कार्तिक सुद अष्टमी अर्थात गोपाष्टमी का पवित्र दिन था. खुद शंकराचार्य भी गौ-हत्या के विरोध में उपवास पर थे. |
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इंदिरा गाँधी ने गौ-भक्तों की माँग को सिरे से खारिज कर दिया. इंदिरा का कहना था कि गौहत्या अलग-अलग राज्यों में जारी रहेगी, इसे रोका नहीं जाएगा. गौभक्तों की यह विशाल रैली दिल्ली के चाँदनी चौक स्थित आर्य समाज मंदिर से स्वामी करपात्री जी महाराज के नेतृत्व में “गौरक्षा महाभियान समिति” के बैनर तले आरम्भ हुई. आचार्य सोहनलाल रामरंग के अनुसार, '' यह हिंदू समाज के लिए सबसे बड़ा ऐतिहासिक दिन था। इतने विवाद और अहं की लड़ाई होते हुए भी सभी शंकराचार्य और पीठाधिपतियों ने अपने छत्र, सिंहासन आदि का त्याग किया और पैदल चलते हुए संसद भवन के पास मंच पर समान कतार में बैठे. उसके बाद से आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ. नई दिल्ली का पूरा इलाका लोगों की भीड़ से भरा था. संसद गेट से लेकर चांदनी चौक तक सिर ही सिर दिखाई दे रहे थे. इस रैली में विभिन्न सनातनी, आर्यसमाजी, हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिख, नाथी, निरंकारी सभी समुदायों के लोग शामिल थे. इन्हीं के साथ जगन्नाथ पुरी गोवर्धन मठ और द्वारका के शंकराचार्य, वल्लभ संप्रदाय के सात पीठाधीश, रामानुज सम्प्रदाय के पीठाधीश्वर जैसे कई-कई दिग्गज हिन्दू साधु एवं अन्य समाजों के लोग शामिल थे. इंदिरा सरकार ने तत्काल 48 घंटे का कर्फ्यू घोषित कर दिया और दिल्ली पुलिस को पूर्ण अधिकार सौंप दिए. जब भीड़ संसद की तरफ बढ़ने लगी और सरकार की तरफ से यह स्पष्ट घोषणा हो गई कि गौहत्या पर प्रतिबन्ध संबंधी कोई भी माँग नहीं मानी जाएगी. यह सुनकर शांतिप्रिय तरीके से प्रदर्शन कर रही भीड़ भड़क गई. भीड़ ने संसद की चारदीवारी को फाँदना शुरू किया ही था कि अंदर से गोली चलाने के आदेश जारी हो गए. पुलिस ने बड़ी ही बर्बरता के साथ हाथ-पैरों में नहीं बल्कि सीधे सीने, पेट और पीठ में गोलियाँ मारी. भीड़ ने क्रोध में आकर तत्कालीन काँग्रेस अध्यक्ष के.कामराज के घर पर आग लगा दी. इतना सब हो चुकने के बाद चूँकि किसी न किसी को बलि का बकरा बनाना था, इसलिए इंदिरा गाँधी ने तत्कालीन गृहमंत्री गुलज़ारीलाल नंदा पर क़ानून-व्यवस्था नहीं बना सकने का आरोप लगाकर उनसे इस्तीफ़ा ले लिया और यशवंतराव चव्हाण को गृहमंत्री बनाया गया. |
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रामरंग जी के अनुसार, ''शहर की टेलिफोन लाइन काट दी गई 8 नवंबर की रात मुझे भी घर से उठा कर तिहाड़ जेल पहुंचा दिया गया नागा साधु छत के नीचे नहीं रहते, इसलिए उन्होंने तिहाड़ जेल के अदंर रहने की जगह आंगन में ही रहने की जिद की, लेकिन ठंड बहुत थी. नागा साधुओं ने जेल का गेट, फर्निचर आदि को तोड़ कर जलाना शुरू किया. तिहाड़ जेल में नागा साधुओं के उत्पात की खबर सुनकर गृहमंत्री यशवंत राव चव्हाण खुद जेल आए और उन्होंने नागा साधुओं को आश्वासन दिया कि उनके अलाव के लिए लकड़ी का इंतजाम किया जा रहा है. लकड़ी से भरे ट्रक जेल के अंदर पहुंचने और अलाव की व्यवस्था होने पर ही नागा साधु शांत हुए.'' रामरंग जी के मुताबिक, ''करीब एक महीने बाद लोगों को जेल से छोड़ने का सिलसिला शुरू हुआ। करपात्री जी महाराज को भी एक महीने बाद छोड़ा गया। जेल से निकल कर भी उनका सत्याग्रह जारी था। इंदिरा सरकार द्वारा इस वीभत्स और क्रूर हत्याकाण्ड के विरोध में शंकराचार्य निरंजनदेव तीर्थ, स्वामी हरिहरानंद जी (जिन्हें हम करपात्री महाराज कहते हैं) तथा महात्मा रामचंद्र अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठ गए. महात्मा रामचंद्र वीर ने उस समय 166 दिनों का अनशन किया था. अगले गृहमंत्री यानी यशवंतराव चव्हाण ने जेल में अनशन कर रहे संतों से मुलाक़ात की और संसद के अगले सत्र में “गौ-ह्त्या निरोधक क़ानून” लाने का आश्वासन दिया, हालाँकि हमेशा की तरह यह आश्वासन भी झूठा निकला और काँग्रेस ने कभी भी “गौ-हत्या बंदी क़ानून” नहीं लाया. एक रिपोर्ट के अनुसार 7 नवंबर 1966 को दिल्ली में लगभग दस लाख लोग एकत्रित थे. सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ इस गोलीकाण्ड में 375 लोग मारे गए थे, जबकि प्रत्यक्षदर्शी कहते हैं कि कम से कम 5000 गौ-भक्त उस दिन मारे गए होंगे , क्योंकि गोलीकांड के बाद सरकार ने लाशों को उठाने का मौका ही नहीं दिया और पुलिस की मदद से ट्रकों में भरकर लाशें किसी अज्ञात स्थान पर दफना दीं बाद में सरकार ने इस पूरे घटनाक्रम को एक तरह से दबा दिया, जिसकी वजह से गोरक्षा के लिए किए गए उस बड़े आंदोलन और सरकार के खूनी कृत्य से आज की युवा पीढ़ी अनजान है''. अब अंत में सबसे खास बात इस घटनाक्रम से बेहद क्रोधित हुए स्वामी करपात्री महाराज ने सभी के सामने इंदिरा गाँधी को श्राप दिया था, कि गौ-भक्तों की हत्यारी तेरा और तेरे परिवार का हश्र भी इसी प्रकार से दर्दनाक ही होगा. और आप इसे संयोग कहें या चमत्कार कहें, जिस दिन इंदिरा गाँधी की हत्या हुई अर्थात 31 अक्टूबर 1984, उस दिन भी “गोपाष्टमी” ही थी. इंदिरा गाँधी भी खून-आलूदा होकर जमीन पर गिरीं और उनके दोनों बेटे यानी राजीव और संजय गाँधी भी अष्टमी तिथि को ही मृत्यु को प्राप्त हुवे । प्रत्येक वर्ष हिन्दू पंचांग अनुसार गोपाष्टमी के दिन तथा 7 नवंबर को सभी गौ-सेवक उनका स्मरण करते हैं. शत शत नमन बलिदानीओ को वंदे मातरम् जय हो गौ माता की जय हिंद T |
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