वैदिक सामाजिक व्यवस्था में चार वर्ण थे -- ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र । दशनाम गोस्वामी लोग मूलत: शैव संन्यासी हैं । संन्यासियों पर वर्ण व्यवस्था लागू नहीं होती क्योंकि संन्यासी की कोई जाति नहीं होती । संन्यास धारण करने से पूर्व व्यक्ति की जाति होती है परंतु संन्यास धारण के बाद नहीं । सांसारिक बंधनों और रिश्ते - नातों को छोड़कर व्यक्ति संन्यासी बनता है। दूसरी बात यह है कि समाज में रहनेवालों पर वर्णव्यवस्था लागू होती थी परंतु संन्यासी तो समाज से परे घने जंगलों , दुर्गम पहाड़ों और अंधेरी कंदराओं में रहते थे । इसप्रकार हम कह सकते हैं कि संन्यासी की कोई जाति ( वर्ण ) नहीं होती लेकिन पूछनेवाले कहाँ माननेवाले हैं फिर भी गोस्वामियों से पूछ ही लेते हैं--"अपनी जाति बताओ । अपना वर्ण बताओ "। नहीं मानते हो तो सुनो। वर्णव्यवस्था वैदिकों की देन है , अवैदिकों की नहीं । गोस्वामियों का सम्बंध शैव परम्परा से रहा है और शैवों में कोई वर्णव्यवस्था नहीं होती । भारत में प्रारंभ से ही दो सांस्कृतिक धाराएं नज़र आती हैं - वैदिक और अवैदिक अर्थात आर्य और अनार्य ( द्रविड़ ) । शैव लोग अवैदिक (अनार्य / द्रविड़ ) का प्रतिनिधित्व करते हैं । कालांतर में वैदिक और अवैदिक सभ्यताओं के नाम बदलकर वैष्णव और शैव हो गये । प्राचीनकाल में वैष्णव और शैव एक-दूसरे के खून के प्यासे थे और एक - दूसरे को नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं रखते थे। वैष्णव संप्रदाय के इष्टदेव भगवान विष्णु हैं जबकि शैव सम्प्रदाय के इष्टदेव भगवान शिव हैं ।वैदिकों ( वैष्णवों ) ने शैवों को सदा कोसा लेकिन शिव की शक्ति के आगे उन्हें झुकना पड़ा और शिव के विवाह आर्य कन्याओं ( सती और पार्वती ) से हुए । वैष्णवों ने भगवान शिव को मन से कभी भी स्वीकार नहीं किया । तभी तो सती के पिता राजा दक्ष ने शिव को अपने यज्ञ में नहीं बुलाया । भगवान शिव का अपमान देखकर सती ने वहां आत्मदाह कर लिया। वैष्णवों और शैवों में ज़मीन - आसमान का अंतर है जिसे समझने की आवश्यकता है । ध्यान रहे कि वैष्णव लोग यज्ञों को महत्त्व देते हैं परंतु शैव नहीं । वैष्णव लोग कर्मकांड को महत्त्व देते हैं जबकि शैव लोग ज्ञानमार्ग को अहमियत देते हैं । वैष्णव लोग यज्ञ , हवन इत्यादि के लिए सारी सामग्री जुटाते हैं और भारी रकम खर्च करते हैं जबकि शैव लोग जल , फूल , पत्ती को चढ़ाकर ही पूजा - अर्चना को पूर्ण मान लेते हैं । उनकी इस क्रिया में कोई रकम खर्च नहीं होती है । आदि शंकराचार्य ने भी कर्मकांड का विरोध करके ज्ञानमार्ग को अपनाया था । आगे चलकर वैष्णव लोग ब्राह्मण कहलाये और शैव लोग गोस्वामी कहलाये । प्राचीनकाल में जो वैमनस्य वैष्णवों और शैवों में था आज भी वह ब्राह्मणों और गोस्वामियों में मिलता है । संघर्ष के बाद वैष्णवों और शैवों में समन्वय भी हुआ था । बहुत से ब्राह्मण शैव संन्यासी बने । पहले ज़माने में केवल ब्राह्मण ही शैव संन्यासी बन सकते थे , ऐसी प्रथा रही । इस हिसाब से देखें तो गोस्वामियों का वर्ण ब्राह्मण हुआ । संन्यास परम्परा में आदिशंकराचार्य का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। वे जाति से ब्राह्मण थे लेकिन संन्यास के बाद आदमी का नया जीवन माना जाता है । अत: वे शैव संन्यासी कहलाये। आदि शंकराचार्य को दशनाम पंथ का उजागरकर्त्ता माना जाता है । उनके जितने भी शिष्य थे वे सब ब्राह्मण थे । अत: गोस्वामियों का वर्ण ब्राह्मण है । कुछ लोगों का दावा है कि ब्राह्मणों से गोस्वामी लोग उच्च हैं । उनके अपने तर्क हैं । उनका कहना है कि ब्राह्मण लोग अपनी उत्पत्ति पुरुषब्रह्म के मुख से बताते हैं जबकि गोस्वामी लोग अपनी उत्पत्ति पुरुषब्रह्म के ललाट से मानते हैं । सब जानते हैं कि मुख से ललाट ऊपर है । एक कहावत बड़ी लोकप्रिय हो चुकी है --"जगत गुरू ब्राह्मण, ब्राह्मण गुरू संन्यासी , संन्यासी गुरू अविनाशी" अर्थात इस संसार के गुरू ब्राह्मण हैं लेकिन ब्राह्मणों के गुरू संन्यासी हैं और संन्यासी के गुरू भगवान अविनाशी हैं अर्थात भगवान शिव हैं । इसलिए गोस्वामी लोग कभी - कभी अपना वर्ण पंचम बताते हैं जबकि शास्त्रों में केवल चार ही वर्णों का उल्लेख है । यह सर्वविदित है कि संन्यासी के पैर ब्राह्मण लोग छूते हैं परंतु संन्यासी कभी किसी ब्राह्मण के पैर नहीं छूता। अब पाठकगण इस लेख को पढ़कर निश्चित करें कि गोस्वामियों का वर्ण ब्राह्मण है या उससे भी कुछ बड़ा है । समाज में अर्थ ( धन ) और विद्या ( शिक्षा ) का भी बड़ा महत्त्व है । प्राचीन काल में संन्यासी ( अर्थात गोस्वामी ) सम्पन्न एवं बड़े - बड़े मठों के अधिपति होते थे जहाँ धन और विद्या की कोई कमी नहीं होती थी लेकिन आधुनिक युग आते - आते गोस्वामी लोग धन और शिक्षा से वंचित हो गये और अब तो हालत ये हो गई है कि देश के अधिकतर प्रदेशों में गोस्वामियों को आर्थिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़ा मानकर अपना नाम अन्य पिछड़ा वर्ग ( ओ. बी. सी. ) में दर्ज कराना पड़ गया है लेकिन ऐसा करने से गोस्वामियों के सामाजिक दर्जे में कोई फर्क नहीं पड़ा है क्योंकि अब तो जाट, गूजर, अहीर ( यादव ) , राजपूत सभी ओ. बी. सी. सुविधा का लाभ उठा रहे हैं । ब्राह्मण भी आरक्षण प्राप्त करने के लिए लालायित हैं । लगभग पंद्रह साल पहले राजस्थान में ब्राह्मणों ने आरक्षण प्राप्त करने के लिए एक बड़ा आंदोलन किया था लेकिन सरकार ने उनकी मांगों को नहीं माना था । जब उनको आरक्षण नहीं मिला तो उन्होंने आरक्षण को बुरा बताना शुरू कर दिया । अंगूर न मिलने पर लोमड़ी उन्हें खट्टे बताती ही है । कोई भी आदमी अकेला या अल्पमत में नहीं रहना चाहता है तो उन्होंने अपनी संख्या बढ़ाने के लिए गोस्वामियों को बरगलाया -- " अरे ! गोस्वामी तो ब्राह्मण होते हैं । गोस्वामियों को आरक्षण नहीं लेना चाहिए ।" लेकिन जब क्षेत्र में चुनाव होते हैं और राजनीतिक पार्टियां जातीय आधार पर टिकट वितरण करती हैं तो उस समय वही ब्राह्मण कहते हैं कि "गोस्वामी लोग ब्राह्मण नहीं होते हैं ।" परिणाम यह होता है कि गोस्वामी लोग ठगे से रह जाते हैं । केवल ब्राह्मणों और वैश्यों को छोड़कर लगभग सभी जातियां ओ. बी. सी. के दायरे में आ गई हैं । मोदी सरकार ने सवर्णों के लिए नौकरियों में 10% आरक्षण की व्यवस्था की है । दिल्ली में मैं अकेला व्यक्ति हूँ जिसने दिल्ली के गोस्वामियों को ओ. बी. सी. आरक्षण का लाभ दिलवाया है । ध्यान रहे कि मैंने या मेरे परिवार के किसी सदस्य ने इस सुविधा का लाभ नहीं उठाया है । केवल दूसरों की भलाई के लिए मैंने यह सब कुछ किया है । जब मैंने गोस्वामियों को ओ. बी. सी. में दर्ज करवाया था उस समय कई लोगों ने मेरी आलोचना की थी लेकिन जब उन्हीं लोगों के बेटों , बेटियों और बहुओं की नौकरियां ओ. बी. सी. के आधार पर मिल गई हैं तो वही लोग मेरी प्रशंसा के पुल बांध रहे हैं । अब तो जज भी ओ. बी. सी. के आधार पर बन रहे हैं । दिल्ली की एक गोस्वामी लड़की ओ. बी. सी. कोटा से ही जज बनी है । उसका सामान्य श्रेणी में नौकरी पाना मुश्किल होता । केन्द्र सरकार की सूची में दिल्ली के गोस्वामियों को ओ. बी. सी. सुविधा का अलग से भी लाभ मिल रहा है अर्थात दिल्ली के गोस्वामी दिल्ली सरकार की नौकरियों में ओ. बी. सी. आरक्षण का लाभ उठा रहे हैं और केंद्र सरकार की नौकरियों में भी लेकिन यही सुविधा कई अन्य प्रदेशों के गोस्वामियों को नहीं मिल रही है जिससे वहां के गोस्वामियों को बहुत नुकसान पहुंच रहा है । उदाहरण के लिए, बिहार और हरियाणा के मामलों में ऐसा ही है । ऐसे मामलों को देखकर कभी - कभी तो मुझे बहुत दुख होता है । उदाहरण पेश है -- हरियाणा की एक गोस्वामी लड़की का वैज्ञानिक के तौर पर भारत की सर्वोच्च संस्था - "इसरो" - में चयन हो गया । कुल पांच पद थे और उनमें से चयन होना हमारे समाज के लिए बड़े गर्व की बात थी । हरियाणा में गोस्वामी लोग ओ. बी. सी. में हैं जिसके आधार पर ही आवेदन किया था लेकिन केंद्र सरकार में यह सुविधा नहीं है , अतः चयन खटाई में पड़ गया । जब मुझे इस बात की जानकारी मिली तो मुझे बहुत दुख हुआ । मैंने इधर - उधर हाथ - पैर मारे और कानूनविदों की राय ली लेकिन कुछ नहीं हुआ । भारतीय समाज में ब्राह्मणों को स्वतः सम्मान मिलता रहा है । कुछ गोस्वामी अपने को ब्राह्मण बताकर ब्राह्मणों जैसा सम्मान पा रहे हैं या पाना चाहते हैं । मेरा तो इतना ही कहना है कि अपने को काबिल बनाओ , दूसरे की बैसाखी का सहारा क्यों लेते हो ? शिक्षित बनो , सम्पन्न बनो , शक्तिशाली बनो । अपना तो सदैव से एक ही नारा रहा है -- "शिक्षा पाओ , व्यवसाय बढ़ाओ और सत्ता हथियाओ ।" इस बात को दिमाग से निकाल दो कि ओ. बी. सी. में नाम लिखवाने से हम निम्न ( Low ) हो गए हैं । यह तो सरकारी सुविधा है जो कि संसद ने पारित करके दी है । ओ. बी. सी. में नाम लिखवाने से पहले भी मैं "गिरि साहब" था और ओ. बी. सी. में नाम लिखवाने के बाद भी मैं "गिरि साहब" हूं । |
0 टिप्पणियाँ