लेखक - गिरिवर गिरि गोस्वामी निर्मोही की कलम से.....
आप देख रहे हे गोस्वामी चेतना समाचार |
प्राचीन काल में शैव साधुओं को ही केवल संन्यासी कहा जाता था लेकिन कालांतर में वैष्णव साधु भी अपने को संन्यासी कहने लगे । शैव संन्यासी भगवान शिव को अपना इष्टदेव मानते हैं जबकि वैष्णव साधु भगवान विष्णु को अपना आराध्य मानते हैं । शैव संन्यासी परम्परा में दशनाम गोस्वामी आते हैं । शैव संन्यासियों को ही आजकल दशनाम गोस्वामी कहा जाता है । दशनाम गोस्वामियों की दो शाखाएँ हैं --- ( 1 ) विरक्त और ( 2 ) गृहस्थ । शैव संन्यासियों ने देश ,धर्म , संस्कृति और समाज को बहुत कुछ दिया जिसका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है! |
भगवा ध्वज |
भगवा रंग तप , बलिदान , त्याग और विरक्ति का प्रतीक है । शैव संन्यासी तप , बलिदान , त्याग और विरक्ति को ही अपने जीवन में सबसे अधिक मान्यता देते थे । भगवा वस्त्र और भगवा ध्वज शैव संन्यासियों को अति प्रिय रहे हैं । भगवा ध्वज मठों , मंदिरों और शिवालयों के शिखरों पर सदैव फहरते रहे । युद्धों में भगवा ध्वज लेकर वीर रणभूमि में उतरते थे । लड़ाकू रथों पर भगवा ध्वज देखने को मिलता था । पृथ्वीराज चौहान ने भगवा ध्वज के दो रूप कर दिये -- "धर्म ध्वज" और "राज्य ध्वज" । पृथ्वीराज चौहान का कहना था कि "राज्य ध्वज भले ही झुक जाये लेकिन धर्म ध्वज किसी के सामने नहीं झुकना चाहिए ।" पृथ्वीराज चौहान ने भगवा ध्वज की रक्षा का दायित्व संन्यासियों को सौंपा था । संन्यासियों ने उस वचन को सदैव निभाया । संन्यासियों ने अपने प्राण दे दिये लेकिन भगवा ध्वज कभी नहीं झुकने दिया । बड़े - बड़े तीसमारखाँ विदेशी आक्रांताओं ने भगवा ध्वज को मिटाने की कोशिश की परंतु भगवा ध्वज आज भी शान से फहर रहा है। भगवा ध्वज आज सनातन धर्म की पहचान बन चुका है । अब विश्व हिंदू परिषद , बजरंग दल , हिंदू सेना इत्यादि हिंदू संगठन उसी भगवा ध्वज को हाथों में थामे जगह - जगह देखे जा सकते हैं । उन सभी संगठनों को ध्यान देना चाहिए कि यह ध्वज संन्यासियों का है जो कि चिरकाल से फहरता आ रहा है । |
हर हर महादेव |
हर हर महादेव एक धर्मघोष है , युद्धघोष है , जयघोष है जिसके आविष्कारक शैव संन्यासी थे । जब वे धार्मिक अनुष्ठान या पूजा- पाठ करते थे तब वे "हर हर महादेव" का उच्चारण करते थे । जब वे युद्ध में उतरते थे तो ज़ोर - ज़ोर से इसी का उदघोष करते थे । कालांतर में इसे सामान्य जनों और राजाओं ने भी अपने जीवन में अपना लिया । युद्धों में राजा इसी को ज़ोर से पुकारकर दुश्मनों पर हमला करते थे । मुसलमानों के साथ हिंदुओं ने जितने भी युद्ध किये तब इसी का उदघोष हुआ । आज भी यह प्रासंगिक है। वैष्णव लोग ( ब्राह्मण लोग ) आज तक भी इसके समकक्ष कोई नारा नहीं निकाल सके हैं । उन्होंने सदैव शैव संन्यासियों ( गोस्वामियों ) के इस नारे को अपनाया है । हिंदू और मुसलमानों में जब भी दंगे हुए हैं तब मुसलमानों की ओर से 'नारेतकबी' या "अल्लाहुअकबर" बोला जाता रहा है और हिंदुओं की ओर से 'हर हर महादेव' का नारा गूंजा है । उस समय हिंदुओं की ओर से 'जय श्रीराम' या 'जय लक्ष्मी' या 'जय सरस्वती' या 'जय गणेश' कभी नहीं बोला गया है । हां, युद्ध करते के समय राजपूत लोग 'जय भवानी' या 'जय महाकाली' या 'जय रणचंडी' या 'जय चामुंडा' भी बोलते थे । ये नारे शाक्त सम्प्रदाय ( शक्ति / दुर्गा ) से सम्बंधित हैं जो कि भगवान शिव की अर्धांगिनी से सम्बद्ध हैं । जैसा कि सर्वविदित है कि शैव सम्प्रदाय और शाक्त सम्प्रदाय एक- दूसरे के पूरक हैं , एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । |
शैव संन्यासी अखाड़े |
अखाड़े का अर्थ पहलवान का अखाड़ा नहीं है बल्कि अखाड़े का अर्थ है धर्म सेना या बटालियन या रेजिमेंट । सनातन धर्म की रक्षा करने के लिए अखाड़ों का निर्माण हुआ । शैव संन्यासियों के सात अखाड़े हैं -- महानिर्वाणी , जूना ( भैरव ) , आवाहन , अग्नि , अटल , आनंद और निरंजनी । इनमें से कुछ अखाड़े आदि शंकराचार्य के पूर्ववर्ती हैं , कुछ समकालीन हैं और कुछ परवर्ती हैं । इन अखाड़ों ने विधर्मियों से सदैव युद्ध किये और सनातन धर्म के लिए अनेक बलिदान दिये जिसका परिणाम है कि सनातन धर्म ( हिंदूधर्म ) अभी तक जीवित है वरना यह तो कभी का मर गया होता। अधिकांश लोगों के दिमाग में यह धारणा घर कर गई है कि केवल राजपूत ही युद्ध करते थे और शैव संन्यासी तो केवल साधु - संत होते हैं । लेकिन ऐसा सोचना गलत है । जब - जब भी आवश्यकता पड़ी तो शैव संन्यासी ने युद्ध किये । शैव संन्यासी राजा के गुरू होते थे । वे राजा के साथ स्वयं रणमैदान में राजा की हिम्मत बढ़ाते थे । शैव संन्यासी अखाड़ों का इतिहास युद्धों का इतिहास रहा है । |
वंदे मातरम |
अखाड़े का अर्थ पहलवान का अखाड़ा नहीं है बल्कि अखाड़े का अर्थ है धर्म सेना या बटालियन या रेजिमेंट । सनातन धर्म की रक्षा करने के लिए अखाड़ों का निर्माण हुआ । शैव संन्यासियों के सात अखाड़े हैं -- महानिर्वाणी , जूना ( भैरव ) , आवाहन , अग्नि , अटल , आनंद और निरंजनी । इनमें से कुछ अखाड़े आदि शंकराचार्य के पूर्ववर्ती हैं , कुछ समकालीन हैं और कुछ परवर्ती हैं । इन अखाड़ों ने विधर्मियों से सदैव युद्ध किये और सनातन धर्म के लिए अनेक बलिदान दिये जिसका परिणाम है कि सनातन धर्म ( हिंदूधर्म ) अभी तक जीवित है वरना यह तो कभी का मर गया होता। अधिकांश लोगों के दिमाग में यह धारणा घर कर गई है कि केवल राजपूत ही युद्ध करते थे और शैव संन्यासी तो केवल साधु - संत होते हैं । लेकिन ऐसा सोचना गलत है । जब - जब भी आवश्यकता पड़ी तो शैव संन्यासी ने युद्ध किये । शैव संन्यासी राजा के गुरू होते थे । वे राजा के साथ स्वयं रणमैदान में राजा की हिम्मत बढ़ाते थे । शैव संन्यासी अखाड़ों का इतिहास युद्धों का इतिहास रहा है । |
संन्यासी कभी किसी के आगे नहीं झुके |
भारत लगभग एक हज़ार वर्षों तक विदेशियों का गुलाम रहा -- आठ सौ साल मुसलमानों का और दो सौ साल अंग्रेजों का । मुसलमानों और अंग्रेजों के सामने भारत के सभी राजा झुके लेकिन संन्यासी कभी नहीं झुके । वे भगवा ध्वज लेकर स्वतंत्रतापूर्वक सारे देश में विचरण करते रहे । उन्होंने मुस्लिम और अंग्रेजी कानूनों को कभी नहीं माना । मुसलमानों और अंग्रेजों के खिलाफ उन्होंने बंगाल में विद्रोह भी किया था जिसे "संन्यासी विद्रोह" के नाम से जाना जाता है । वे मुसलमानों को जजिया कर नहीं देते थे । यदि उसके लिए उनको मजबूर किया जाता था तो हाकिमों के सामने नंगे खड़े हो जाते थे और मरने- मारने पर उतर आते थे। अंग्रेजी काल में सभी वर्ग के लोगों के हथियार अंग्रेजों ने जब्त कर लिए थे और वे केवल अपने चहेतों को लाइसेंस देकर हथियार रखने की अनुमति देते थे लेकिन संन्यासियों ने कभी उस कानून को नहीं माना । वे चिमटों, तलवारों , भालों , बरछियों को सदैव साथ रखते थे और उन्हीं से वार करते थे । |
संन्यास में जातिगत भेद नहीं |
संन्यास से पूर्व व्यक्ति की जाति होती है लेकिन संन्यास धारण करने के बाद व्यक्ति की जाति नहीं होती । संन्यास धारण करने के पश्चात जाति का उल्लेख करना संन्यास का उल्लंघन माना जाता है । ऐसा करने पर संन्यास को भंग माना जाता है जिसका प्राश्चित केवल मृत्यु है । ऐसा संन्यास धर्म का नियम है । लेकिन आजकल तो संन्यासी लोग संन्यास से पहले के अपने जीवन के बारे में शान से बता रहे हैं जबकि ऐसा करना वर्जित है। जहां एक ओर भारतीय समाज में जातिवाद का बोलबाला था लेकिन संन्यासियों ने सदैव समानता और समरसता की बात की । |
संन्यासी का दर्जा सर्वश्रेष्ठ है |
ईश्वर के बाद संन्यासी का दर्जा ही समाज में सर्वोच्च माना जाता रहा है । प्राचीनकाल में जब संन्यासी राजदरबारों में जाते थे तो राजा- महाराजा अपने सिंहासनों को छोड़कर खड़े हो जाते थे । भारतीय समाज में ब्राह्मणों को उच्च स्थान एवं सम्मान मिलता रहा है लेकिन ब्राह्मण भी संन्यासी के पैर छूते हैं । आज तक किसी भी संन्यासी ने किसी भी ब्राह्मण के पैर नहीं छुए हैं । हां , ब्राह्मणों ने संन्यासियों के सदैव पैर छुए हैं । इससे संन्यासी की श्रेष्ठता झलकती है । एक कहावत बड़ी प्रचलित है -- " जगत गुरू ब्राह्मण , ब्राह्मण गुरू संन्यासी और संन्यासी गुरू अविनाशी" अर्थात संसार का गुरू ब्राह्मण होता है । ब्राह्मण का गुरू संन्यासी होता है और संन्यासी का गुरू अविनाशी अर्थात शिव होता है । |
देश की अखंडता एवं एकता के पोषक |
दशनाम गोस्वामियों का उदभव आदि शंकराचार्य से माना जाता है । आदि शंकराचार्य ने धर्म के आधार पर इस देश को एकता के सूत्र में बांधा था । वे देश की अखंडता एवं एकता के प्रबल समर्थक थे और यही मंत्र उन्होंने दशनाम गोस्वामियों को दिया । आज तक किसी भी संन्यासी ने देश की अखंडता एवं एकता के विरुद्ध कोई कार्य नहीं किया है । यदि सरकार अनुमति दे तो वे शत्रुदेश से लड़ने के लिए सीमाओं पर जाने को तैयार बैठे हैं । संन्यासी को मृत्यु का भय नहीं होता है । संन्यासी तो मृत्यु को मोक्ष का एक साधन मानता है । |
स्वस्थ एवं सदाचारी जीवन के प्रणेता |
संन्यासी लोग योग , प्राणायाम इत्यादि से अपने शरीर और मन को स्वस्थ बनाते हैं और लोगों को ऐसा करने की प्रेरणा भी देते हैं जिससे समाज में सदाचार बना रहे । |
WleCome To गोस्वामी चेतना समाचार |
दुख की बात यह है कि संन्यासियों के बलिदानों और योगदानों को अब भुला दिया गया है । इन बातों को कोर्स की किताबों में स्थान नहीं दिया गया है । तैमूर , बाबर , गौरी , नादिर जैसे लुटेरों , आतंकियों , जेहादियों और रक्तपिपासुओं के बारे में पढ़ाया जा रहा है जिन्होंने भारतीय धर्म - संस्कृति को तहस नहस किया और भारत माता को पददलित किया । दिल्ली में संन्यासियों के नामों पर सड़कों के नाम देखने को नहीं मिलेंगे लेकिन बाबर , हुमायूं , शेरशाह , अकबर , शाहजहां , औरंगजेब तुगलक , लोदी के नामों पर सड़कों के नामों की भरमार है । इनके नामों को पढ़कर लगता नहीं है कि हम दिल्ली में रह रहे हैं । लगता है कि मानो हम बगदाद या कुस्तुन्तुनिया में रह रहे हैं । सनातन धर्म को कई शताब्दियों तक बौद्ध धर्म ने चुनौती दी थी लेकिन इतिहास में एक समय ऐसा भी आया कि जब आदि शंकराचार्य के अनुयायियों ( अर्थात दशनाम गोस्वामी संन्यासियों और गृहस्थों ) ने भारत से बौद्ध धर्म को बिल्कुल समाप्त कर दिया था । इस बात को कोर्स में नहीं पढ़ाया जाता है । नीतिनिर्माताओं को डर लगता है कि ऐसा पढ़ाने से बौद्ध लोग बुरा मान जायेंगे । कालांतर में जापान और श्रीलंका के बौद्धों ने आकर भारत में बौद्ध धर्म में फिर से जान डाली थी |
इंदौर से बीजेपी सांसद श्री शंकर लालवानी ने संसद में यह मांग की है कि कोर्स की किताबों में आदि शंकराचार्य के बारे में पढ़ाया जाये । यदि ऐसा हुआ तो उसी संदर्भ में दशनाम गोस्वामियों के बारे में भी पढ़ाया जायेगा । अभी यह प्रस्ताव संसद की विशेष शिक्षा समिति के पास है । |
0 टिप्पणियाँ