Hot Posts

6/recent/ticker-posts

दशनामी गोस्वामी हैं सन्तो के संत


 संकलन - आदित्य गोस्वामी मोरवन नीमच म.प्र. 

दि शंकराचार्य की शैव परम्परा में तीर्थ , आश्रम , वन , अरण्य , गिरि , पर्वत , सागर , सरस्वती , भारती और पुरी उपनामधारक शैव संन्यासियों अथवा लोगों को "दशनाम गोस्वामी" अथवा "दशनाम गोसाईं" कहते हैं । इन्हें दशनाम या दसनाम इसलिए कहते हैं क्योंकि इनकी संख्या दस है ।  अन्य पंथ या समुदाय  के लोगों को इन उपनामों को धारण करने का अधिकार नहीं है ।  इन उपनामों पर केवल दशनामियों का एकाधिकार (Monopoly ) है । 

                          भारत ऋषियों और मुनियों का देश रहा है । इस देश में अनगिनत  ऋषि और मुनि हुए हैं जिन्होंने इस देश की सभ्यता एवं संस्कृति को बनाने , सुदृढ करने और प्रचारित- प्रसारित करने में अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया । मज़े की बात यह है कि इनमें से अधिकांश या तो दशनाम पंथ में थे या वे दशनाम पंथ में दीक्षित हुए थे या वे दशनाम पंथ से प्रभावित थे । आओ, इसी बात को प्रमाणों सहित जानें------


गौरांग चैतन्य महाप्रभु :-  चैतन्य महाप्रभु का असली नाम विश्वम्भर मिश्र था । उनको गौरांग इसलिए कहते थे कि वे अत्यंत गौर वर्ण के थे । उनका जन्म बंगाल के एक वैदिक ब्राह्मण परिवार में हुआ था । वे बचपन से ही कथा - कीर्तन और ईश्वर भक्ति में रूचि रखते थे । एक बार की बात है कि  अपने पिता का श्राद्ध करने के लिये वे गयाधाम गये हुए थे। वहां जाकर उन्हें जीवन और संसार से विरक्ति पैदा हो गयी । दशनाम शैव संन्यासियों ईश्वर पुरी और केशव भारती  से प्रभावित होकर उन्होंने संन्यासी बनने का मन बनाया । ईश्वर पुरी और केशव भारती आपस में गुरूभाई थे। गौरांग को दशनाम की "पुरी" शाखा में दीक्षित किया गया। उनका नाम विश्वम्भर मिश्र से बदलकर "चैतन्य" रखा गया। अतः संन्यास ग्रहण करने के बाद उनका पूरा नाम "चैतन्य पुरी" हो गया। आगे चलकर वे कृष्ण भक्ति में डूब गए । वे सड़कों पर ढोलक बजाकर कृष्ण को समर्पित गीत गाते थे । गीत गाते - गाते वे अपने आप में खो जाते थे । लोग उनके उस रूप से बड़े प्रभावित हुए । लोग भी उनके साथ ऐसा ही करने लगे और कृष्ण भक्ति का समुद्र सब ओर कुलांछे मारने लगा । अब उस शैली की झलक देश - विदेश में हरे रामा हरे कृष्णा को गानेवाले इस्कॉन संस्था के लोगों में मिलती है ।  वे बहुत प्रसिद्ध हो गये । उन्होंने  गया , मथुरा और वृंदावन का भ्रमण किया । बंगाल के गोस्वामी ही मथुरा - वृंदावन में आकर बसे । कहने का मतलब यह है कि चैतन्य महाप्रभु तो दशनाम गोस्वामियों के शिष्य थे ।


स्वामी रामकृष्ण परमहंस :-  स्वामी रामकृष्ण परमहंस का असली नाम गदाधर चट्टोपाध्याय था । वे एक बंगाली ब्राह्मण थे । उनकी पत्नी का नाम शारदामणि था। सांसारिक चीजों में उनका मन नहीं लगता था। उन्होंने संन्यासी बनना पसंद किया। संन्यासी बनने के लिए किसी न किसी से संन्यास की दीक्षा लेना अनिवार्य होता है । उन्होंने संन्यास की दीक्षा पंजाब प्रांत ( अब हरियाणा ) के कैथल शहर के निकट स्थित लदाना  के नागा मठ के महंत  दशनाम शैव संन्यासी तोता पुरी से ली थी । उनका नाम गदाधर चट्टोपाध्याय से बदलकर "रामकृष्ण" रखा गया। क्योंकि उनको दशनाम की पुरी शाखा में दीक्षित किया गया था , अतः "पुरी" उनका उपनाम रहा । उनका पूरा नाम था --"रामकृष्ण पुरी"। "परमहंस" संन्यास की सर्वोच्च उपाधि होती है। कहने का मतलब यह है कि स्वामी रामकृष्ण परमहंस तो दशनाम गोस्वामी संन्यासी के चेले थे ।


स्वामी विवेकानंद :- स्वामी विवेकानंद का असली नाम नरेन्द्र नाथ था । वे कोलकाता के निवासी थे । वे दक्षिणेश्वर मंदिर में जाते रहते थे । वहीं वे स्वामी रामकृष्ण परमहंस के सम्पर्क में आये और उनके शिष्य बन बैठे । नरेन्द्र नाथ का नाम बदलकर " विवेकानंद" रखा गया । वे दशनाम पंथ की "पुरी" शाखा में दीक्षित हुए थे , अतः उनको "पुरी" उपनाम धारण करना पड़ा । उनका पूरा था-- "विवेकानंद पुरी" था जबकि वे "स्वामी विवेकानंद" के नाम से विश्वविख्यात हुए । वे दशनाम शैव संन्यासी तोता पुरी के परम शिष्य ( अर्थात शिष्य के शिष्य ) थे ।

स्वामी दयानंद सरस्वती :- स्वामी दयानंद सरस्वती का असली नाम मूलशंकर तिवारी था जो कि गुजरात में पैदा हुए थे । शिवरात्रि के शुभ अवसर पर शिव प्रतिमा पर चूहों के उत्पात को देखकर उन्हें मूर्ति पूजा से चिढ़ हो गई । वे सत्य की खोज में निकल पड़े । दण्डी संन्यासी  स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती से उन्होंने संन्यास की दीक्षा ली । उनका नाम मूल शंकर तिवारी से बदलकर "दयानंद सरस्वती" रखा गया । उन्होंने योगविद्या शिवानंद गिरि, ज्वाला पुरी, भवानी पुरी और गंगा पुरी से ली। व्याकरण की शिक्षा उन्होंने स्वामी विरजानन्द सरस्वती से ली ।


स्वामी युक्तेश्वर गिरि ( 1855- 1936 ई.) :- स्वामी युक्तेश्वर गिरि का असली नाम प्रिय नाथ करार था । उनका जन्म बंगाल के सेरामपुर कस्बे में एक धनाढ्य परिवार में हुआ था । उन्हें कई भाषाओं का ज्ञान था । वे विवाहित थे तथा वे एक पुत्री के पिता भी थे । पत्नी के मरने के बाद उन्हें विरक्ति ने आ घेरा। उन्होंने काशी के महान गृहस्थ संन्यासी महाशय श्यामा चरण लाहिड़ी का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। प्रिय नाथ करार से "युक्तेश्वर" नाम हो गया । दशनाम पंथ की "गिरि" शाखा में दीक्षित होने कारण "गिरि" उपनाम लगाना पड़ा है और पूरा नाम हो गया-- "युक्तेश्वर गिरि"। वे अत्यंत नियमशील , सदाचारी और शाकाहारी थे । वे कभी भी बीमार नहीं पड़े । वे योगविद्या में प्रवीण थे । वे दूर घटित घटनाओं को जान लेते थे । वे जो बोल देते थे वही सत्य हो जाता था । वे प्राच्य और पाश्चात्य संस्कृतियों में समंवय के पक्षधर थे । इसलिए उन्होंने अपने शिष्य योगानंद गिरि को अमेरिका और यूरोप में योग के प्रचार के लिए भेजा था । कहते हैं कि मरने के बाद उन्होंने सशरीर अपने शिष्य योगानंद को दर्शन दिये थे।


परमहंस योगानंद गिरि ( 1893 - 1952 ई०) :-  स्वामी योगानंद गिरि का असली नाम मुकंद लाल घोष था । वे जाति से बंगाली क्षत्रिय  थे । वे आठ भाई - बहन थे । उनके माता - पिता काशी के गृहस्थ संन्यासी महाशय श्यामा चरण लाहिड़ी के शिष्य थे । मुकंद लाल घोष संन्यासी बनना चाहते थे । लेकिन उनके पिताजी उन्हें रेलवे में अधिकारी बनाना चाहते थे । मुकंद लाल घोष ने स्वामी युक्तेश्वर गिरि का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया । उन्होंने स्वामी युक्तेश्वर गिरि से योग विद्या सीखी । गुरु की आज्ञा से वे योग का प्रचार - प्रसार करने के लिए यूरोप और अमेरिका गए । स्वामी विवेकानंद के बाद अमेरिका में स्वामी योगानंद गिरि को ही सबसे अधिक पहचाना जाता है । उन्होंने अमेरिका में योग विद्यालय खोले ओर वहां उनके लाखों लोग शिष्य बने। 


संन्यासी तोता पुरी नागा  बाबा:- दशनाम संन्यासी तोता  पुरी महाराज एक नागा साधु थे । वे नंगे रहते थे । वे बचपन में ही हरियाणा  प्रांत के शहर कैथल के समीप लदाना मठ में भर्ती हो गए थे जहां की सात सौ नागा संन्यासी रहते थे । आज ग्रामीण भाषा में इस दिव्यभूमि को "बाबे का लदाना" कहते हैं । उस समय उस प्रांत को हरियाणा नहीं , पंजाब कहते थे ।  बाद में  वे मठ और अखाड़े  के महंत या मठाधीश बने । उनके गुरू का नाम दिव्यानंद सरस्वती था । बंगाल के स्वामी रामकृष्ण परमहंस उनके ही शिष्य थे। स्वामी तोतापुरी ने गदाधर ( अर्थात रामकृष्ण ) को सन् 1865 ई. में अद्वैत वेदांत की शिक्षा - दीक्षा दी थी । 



दशनाम संन्यासी प्राण पुरी :-  वे कन्नौज के रहनेवाले थे। नौ वर्ष की आयु में संन्यास लिया । 1748- 49 ई. में सिंहस्थ पर्व पर प्रयाग पहुंचे । वहाँ उन्होंने 18 प्रकार के तप और योग किये । वहाँ उन्होंने "उर्ध्वबाहू" की उपाधि प्राप्त की । पहले उन्होंने त्रास झेला लेकिन बाद में उन्हें बहुत यश मिला । पूरे भारत का भ्रमण करने के बाद वे खुराशान, रूस, अरब देश, समरकंद, बगदाद , तिब्बत , चीन , श्रीलंका भी गये।


गिरि बाला - एक निराहार साध्वी :- उसका जन्म बंगाल के बांकुरा जिला के बिउर गांव में हुआ था । बचपन से ही उसको  बहुत भूख लगती थी और वह हर समय कुछ न कुछ खाती ही रहती थी । सगाई होने पर उसकी मां ने उसको भूख पर नियंत्रण की सलाह दी लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाई । विवाह के बाद वह अपनी ससुराल नवाबगंज चली गई लेकिन भूख के कारण उसकी सास उसे अक्सर ताने मारती थी । एक दिन उसने गंगा में खड़े होकर कुछ न खाने की सौगंध ली । वह बिना भोजन के रहने लगी । वह विधवा हो गई और उसकी अपनी कोई संतान नहीं थी । वह दिन में दैनिक कार्य निपटाती थी और रात्रि को साधना करती थी । वह अपनी सांस और नब्ज को भी रोक लेती थी । वह कभी भी बीमार नहीं पड़ी । उसको अदृश्य शक्तियों के दर्शन होते रहते थे । 5 मई 1936 को स्वामी योगानंद गिरि ने उससे भेंट की थी और उसके फोटो खींचे थे।

हिन्दू धर्म में शंकराचार्य का पद सर्वोच्च माना जाता है । भारत के चार कोनों में चार महामठ हैं जिनकी स्थापना आदि शंकराचार्य ने स्वयं अपने हाथों से की थी -- पूर्व में गोवर्धन महामठ , पश्चिम में द्वारका महामठ , उत्तर में ज्योतिर्महामठ और दक्षिण में श्रृंगेरी महामठ । इनके शंकराचार्य केवल दसनामधारक संन्यासी ही हो सकते हैं । जूना अखाड़े के महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि , जूना अखाड़ा के महासचिव स्वामी हरि गिरि महाराज , तेरह अखाड़ों के अध्यक्ष स्वामी नरेन्द्र गिरि ऐसे ही अनगिनत उदाहरण हैं । यहां सभी का वर्णन सम्भव नहीं है।  दशनाम गोस्वामियों को सदैव ध्यान रखना चाहिए कि वे अति उच्च एवं महान परम्परा में आते हैं । 


© महाग्रंथ "गोस्वामीनामा" के अध्याय - 30 से उद्धृत। लेखक- गिरिवर गिरि गोस्वामी निर्मोही, नयी दिल्ली, 9818461932


 

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ