22 अक्टूबर 1873 - 17 अक्टूम्बर 1906 |
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आप देख रहे हे गोस्वामी चेतना |
प्रारंभिक जीवन |
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स्वामी राम तीर्थ का असली नाम तीर्थराम था । शारदा पीठ के शंकराचार्य से संन्यास लेने के बाद वे स्वामी राम तीर्थ के नाम से विख्यात हुए । तीर्थराम का जन्म गोस्वामी ( गोसाईं ) जाति में पंजाब के जिले गुजरांवाला के गांव मुरलीवाला में 22 अक्टूबर सन् 1873 ई० ( दीपावली के दिन ) हुआ था जो कि अब पाकिस्तान में है । उनके पिता का नाम गोस्वामी हीरानंद था जो कि पुरोहिताई का काम करते थे । उनके दादा का नाम गोस्वामी रामचन्द्र था जो कि एक प्रसिद्ध ज्योतिषी थे । तीर्थराम बहुत छोटे थे तभी उनकी माता का देहांत हो गया था । अतः उनका लालन - पालन उनकी बूआ धर्मकौर ने किया था । उनकी बूआ बहुत धार्मिक महिला थीं जिनका तीर्थराम पर काफी प्रभाव पड़ा । तीर्थराम के परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी । उन पर कपड़ों और जूतों को खरीदने के लिए धन का अभाव रहता था । स्कूल की फीस भी देनी मुश्किल होती थी । उनको रात को अपनी पढ़ाई सरकारी लैम्पों की रौशनी में करनी पड़ती थी । तीर्थराम को पढ़ने का बहुत शौक था । वे कुशाग्रबुद्धि थे । गणित उनका प्रिय विषय था जिसमें उन्हें महारत हासिल थी । उन्हें "अंकों का बादशाह" या "गणित का जादूगर" कहा जाता था । गणित के अलावा उनको अंग्रेजी, उर्दू और फारसी पर भी अच्छी पकड़ थी । बड़े होकर वे लाहौर के फोरमैन क्रिश्चियन कॉलेज में गणित के प्रोफेसर बने । उनका विवाह हुआ, बच्चे हुए । |
पहनावा एवं रहन - सहन |
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प्रोफेसर होते हुए भी वे सादा जीवन और उच्च विचार के प्रतीक थे । |
धुन के पक्के |
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वे जो ठान लेते थे उसको पूरा करके ही दम लेते थे । लोग उनकी बुद्धि को परखने के लिए उनको ऊटपटाँग सवाल हल करने को दे देते थे । जब वे छात्र थे तो उन्हें किसी ने चार ऊलजुलूल सवाल हल करने को दे दिये । उन सवालों ने तीर्थराम की खोपड़ी को हिलाकर रख दिया । आधी रात तक वे तीन सवाल ही हल कर पाये लेकिन चौथा सवाल काबू में नहीं आ रहा था । उन्होंने प्रतिज्ञा की -- "यदि सूर्योदय से पहले मैं चौथा सवाल हल नहीं कर पाऊंगा तो कटार से अपनी गरदन काटकर मर जाऊंगा ।" वे सवाल को हल करने के लिए बैठ गए लेकिन सवाल का हल नहीं मिला । सूर्योदय होने को था । उन्होंने कटार को गरदन पर फेरा । खून की एक बूंद ज़मीन पर गिर पड़ी । मरने से पूर्व उन्होंने ईश्वर को याद किया और आकाश की ओर निहारकर ईश्वर को धन्यवाद देना चाहा । तारे टिमटिमा रहे थे । उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा क्योंकि प्रमेय का हल तारों की आकृतियों में दिखाई दे रहा था । उन्होंने कटार को फेंककर कागज पर उत्तर लिखा। |
निर्लोभी एवं स्वाभिमानी |
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उनकी गरीबी को देखकर बहुत से लोग उनकी आर्थिक मदद करना चाहते थे लेकिन उन्होंने कभी भी किसी का अहसान नहीं लिया । जब वे छात्र थे तो वे स्कूल की फीस न दे सके । प्रोफेसर गिलवर्स्टन को जब पता चला तो उनको प्रोफेसर ने तीस रुपये दिये लेकिन उन्होंने केवल दस रुपये ही लिए क्योंकि दस रुययों से काम हो जाना था । |
दुर्बल शरीर परन्तु अत्यधिक बलशाली |
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तीर्थराम शरीर से बहुत दुबले थे । प्रिंसिपल बैल उन्हें छात्रावास की व्यायामशाला में ले गये जहां विद्यार्थी कसरत कर रहे थे । प्रिंसिपल बैल ने मज़ाकिया भाव में पूछा -- "तीर्थराम ! तुम कौन सा व्यायाम करते हो ?" तीर्थराम ने तपाक से उत्तर दिया -- "सर ! चारपाई व्यायाम ।" सब ओर हंसी फूट पड़ी । प्रिंसिपल ने एक चारपाई मंगवाई और प्रदर्शन करने को कहा । तीर्थराम ने चारपाई के दो पायों को पकड़कर चारपाई को सौ बार ऊपर - नीचे किया जबकि कोई भी विद्यार्थी चारपाई को पंद्रह - बीस बार से ऊपर- नीचे नहीं कर पाया । |
इंद्रियों के स्वामी |
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वे सच्चे अर्थों में "गोस्वामी" थे । "गोस्वामी" का अर्थ होता है "आत्मा का स्वामी" या "इंद्रियों का विजेता" । उन्होंने अपनी इंद्रियों पर काबू पा लिया था । उदाहरण के लिए -- एक दुकान पर उन्होंने सुंदर - सुंदर, लाल - लाल सेब देखे थे । उनकी जीभ चटखारे मारने लगी । उन्होंने बहुत समझाया लेकिन जीभ नहीं मानी । उन्होंने जीभ को दण्डित करने का निर्णय लिया । वे बाज़ार से एक टोकरी सेब खरीदकर लाये । वे रोज़ सेबों को देखते थे लेकिन खाते नहीं थे । आखिर जीभ को हार माननी पड़ी । उन्होंने सेबों सहित टोकरी घर से बाहर फेंक दी । दूसरा उदाहरण , तीर्थराम किसी गली से गुज़र रहे थे । सामने छज्जे पर एक नवयौवना केश खोले खड़ी थी । आंखें उसको बार - बार देखना चाह रही थीं । उन्होंने आंखों को बहुत समझाया लेकिन आंखें कहना नहीं मान रही थीं । उन्होंने आंखों को दण्डित करने का निर्णय लिया । छ: महीनों तक वे गरदन नीचे करके चले और निर्णय लिया कि "पराई स्त्री को भविष्य में गलत नज़र से नहीं देखा जायेगा ।" यह उन्होंने भविष्य में करके भी दिखाया । |
स्वामी विवेकानंद से प्रभावित |
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सन् 1893 ई. में स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका में आयोजित "विश्व धर्म सम्मेलन" में अपने ज्ञान की धाक जमा दी थी । स्वामी विवेकानंद सन् 1897 ई० में भारत लौटे । सनातन धर्म सभा ने लाहौर में उनका स्वागत किया । तभी तीर्थराम की मुलाकात स्वामी विवेकानंद से हुई । दोनों में गहन विचार विमर्श हुआ । तीर्थराम ने स्वामी विवेकानंद जैसा बनने का मन बनाया । ★ वेदांत की ओर झुकाव :- सन् 1898 ई० में तीर्थराम ने "अद्वैतामृतवर्षिणी सभा" का गठन किया और अद्वैत वेदांत का प्रचार - प्रसार शुरु कर दिया जिसके लिए उर्दू में "अलिफ" मासिक अखबार का प्रकाशन भी आरम्भ किया । अध्यापन से उन्हें अरूचि हो चली थी । वे किसी बंधन में बंधकर नहीं रहना चाहते थे । सन् 1900 ई० में प्रोफेसर के पद से त्यागपत्र देकर दीपावली के दिन अपनी पत्नी और दो बच्चों को छोड़कर वे हिमालय पर चले गये । सन् 1901 ई० में उन्होंने शारदा पीठ के शंकराचार्य से विधिवत संन्यास की दीक्षा ली । शंकराचार्य ने उनका तीर्थराम से नाम बदलकर "राम तीर्थ" रखा । विदित हो कि शैव संन्यासियों ( दशनाम गोस्वामियों ) की दस शाखाएं होती हैं --- वन , अरण्य , तीर्थ , आश्रम , गिरि , पर्वत , सागर , सरस्वती , भारती और पुरी । तीर्थराम को "तीर्थ" शाखा में दीक्षित किया गया था । उसके बाद प्रोफेसर तीर्थराम "स्वामी राम तीर्थ" कहलाये । |
संन्यासी के रूप में कार्य |
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टिहरी नरेश महाराजा कीर्तिशाह बहादुर की विनती एवं खर्च पर वे हिंदुत्व के प्रचार के लिए सन् 1902 ई० में जापान गये । वहाँ लोगों ने उनके ज्ञान की धाक मानी । वहीं उनकी मुलाकात पंजाब निवासी सरदार पूरन सिंह से हुई । सरदार पूरन सिंह इतने प्रभावित हुए कि वे स्वामी राम तीर्थ के शिष्य बन गये । स्वामी राम तीर्थ की लोकप्रियता इतनी बढ़ गई कि उनको मंदिरों, गुरद्वारों और गिरजाघरों में प्रवचन हेतु बुलाया जाने लगा । |
अमेरिका प्रवास |
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हिंदुत्व एवं अद्वैत वेदान्त के प्रचार - प्रसार के लिए वे सन् 1902 ई० में अमेरिका गये । उस समय उनके पास न कोई सामान था और न रुकने का ठिकाना । अमेरिका के शहरीय बंदरगाह सेन फ्रांसिस्को में पानी के जहाज से उतरने की सभी को जल्दी थी लेकिन स्वामी जी शांत बैठे हुए थे । अमेरिका निवासी एक व्यक्ति हिलर को स्वामी जी का व्यवहार बड़ा अजीब लगा । हिलर ने स्वामी जी से पूछा -- "क्या आपको उतरने की जल्दी नहीं है ? लगता है आप यहाँ नये हो । क्या आपका अपना कोई यहाँ है ?" स्वामी जी ने बड़ी आत्मीयता के साथ उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा -- "आप ही तो हो ।" हिलर को स्वामी जी का उत्तर इतना भाया कि जब तक स्वामी जी अमेरिका में रहे उनके ठहरने और खाने-पीने का प्रबंध हिलर ने ही किया । अमेरिका में भरी सभा में स्वामी जी ने प्राणायाम द्वारा अपनी नाड़ी की गति और हृदय की धड़कन को रोक दिया । डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया लेकिन स्वामी जी "ओइ्म" कहते हुए उठ खड़े हुए । दर्शक दंग रह गये । अनेक अमेरिकी लोग उनके शिष्य बन गए । सन् 1904 ई० में वे अमेरिका से भारत लौटे । |
जीवन के अंतिम दिन |
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अमेरिका से लौटाने के बाद वे एकांतप्रिय हो गये थे और सन् 1906 ई० से वे सार्वजनिक जीवन से दूर रहने लगे थे । सन् 1906 ई० में वे हिमालय की तलहटी में जा बसे । वहाँ उन्होंने एक पुस्तक लिखनी शुरू की जो कि कभी पूरी नहीं हो सकी । उन्हें जीवन से विरक्ति हो गई थी । तैंतीस वर्ष की आयु में सन् 1906 ई० में दीपावली के दिन गंगा स्नान करते हुए टिहरी में जलसमाधि ले ली । ज्ञात हो कि शैव संन्यासियों ( दशनाम गोस्वामियों ) में समाधि लेने की प्रथा है । जीवित अवस्था में समाधि लेने को श्रेष्ठतम माना जाता है । समाधि दो प्रकार की होती है -- भूसमाधि और जलसमाधि । उनकी बहन का पुत्र ( अर्थात ) भान्जा ) एच .डब्ल्यू . एल . पुंज लखनऊ में अद्वैत का शिक्षक बना जबकि उनका प्रपौत्र हेमंत गोस्वामी चण्डीगढ़ में सामाजिक कार्यकर्ता बना । न्यू टिहरी के बादशाही थाउल ( Thaul ) में स्थित हेमवती नंदन बहुगुणा विश्वविद्यालय के तीन परिसरों में से एक स्वामी राम तीर्थ परिसर ( एस . आर . टी . सी. ) है । |
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