विदेशी आक्रांताओं , मुसलमानों और अंग्रेजों के आगे सभी झुके लेकिन भगवा और संन्यासी कभी नहीं झुके । आओ, इसी बात को गहराई से जानें :--- भारत प्रारंभ से ही सुखी और समृद्ध देश रहा है , तभी तो दुनियावाले इसे "सोने की चिड़िया" कहते थे । सुखी और सम्पन्न घर पर जैसे चोरों की गिद्ध दृष्टि रहती है वैसे ही भूखे, नंगे , अभावग्रस्त अरबों और तुर्कों की बुरी नज़र भारत पर रही । प्रारंभ में उनका उद्देश्य भारत को लूटना और इस्लाम धर्म को फैलाना था , लेकिन बाद में वे भारत के शासक बन बैठे । भारत में मुसलमानों का शासन लगभग आठ सौ साल रहा । इस दौरान भारत में इस्लाम धर्म का प्रचार - प्रसार प्रेम, लालच और तलवार के बल पर किया । अनगिनत हिंदुओं को मुसलमान बनाया गया । जिन्होंने मुसलमान बनने से मना किया उनकी गरदनें साफ़ कर दी गयीं । भारत के इतिहास में केवल दो - चार हिंदू शासकों के नाम हैं जो मुसलमानों के आगे नहीं झुके परंतु दुख की बात यह है कि वे तो न झुके परंतु भविष्य में उनकी संततियां मुसलमानों के आगे झुक गयीं। पहले हर हिंदू शासक के झण्डे का रंग भगवा होता था । पृथ्वीराज चौहान के समय में भगवा ध्वज के दो प्रकार कर दिये गए -- राज्यध्वज और धर्मध्वज। पृथ्वीराज चौहान का मानना था कि "राज्यध्वज भले ही झुक जाये परंतु धर्मध्वज मुसलमानों के आगे कभी नहीं झुकना चाहिए ।" उन्होंने यह जिम्मेदारी संन्यासियों को दी थी । संन्यासियों ने पृथ्वीराज चौहान की बातों को हृदय से स्वीकार करके धर्मध्वज को मुसलमानों के आगे कभी झुकने नहीं दिया भले ही उनके प्राण चले गये । बादशाह अकबर के समय मुस्लिम मलंग फकीरों का बड़ा आतंक व्याप्त था । वे बड़ी - बड़ी दरगाहों में रहते थे । वे पहले प्यार से समझाकर या बहला - फुसलाकर धर्म परिवर्तन कराते थे । लेकिन काम बनता नहीं देखकर वे जबरन ऐसा करवाते थे । धर्मपरिवर्तन को वे शवाब ( इस्लाम के लिए पुण्य) का काम मानते थे । गणमान्य हिंदुओं ने बादशाह अकबर से उनके विरुद्ध शिकायत की थी तो बादशाह का जवाब था - "ये तो खुदा की गायें हैं । इनके काम में हम दख़ल नहीं दे सकते ।" ऐसा उत्तर सुनकर हिंदू समाज तिलमिला उठा । शैव संन्यासी एकदम क्रुद्ध हो उठे । दशनाम शैव संन्यासी मधूसूदन सरस्वती ने संन्यासी अखाड़ों के द्वार क्षत्रियों के लिये खोल दिये अर्थात संन्यासी अखाड़ों में क्षत्रियों को भर्ती करना शुरू कर दिया वरना । उससे पहले केवल ब्राह्मण ही संन्यासी अखाड़ों में भर्ती होते थे । ब्राह्मण बने संन्यासी अच्छे तर्क तो दे सकते थे परंतु वे अच्छे योद्धा सिद्ध नहीं हुए । दशनाम संन्यासी मधुसूदन सरस्वती के निर्णय के बाद विद्वत्ता का स्थान बलिष्ठता ने ले लिया । हृष्ट-पुष्ट और मारधाड़ की प्रवृत्ति वाले लोगों को दशनाम शैव संन्यासी अखाड़ों में भर्ती करना शुरू हुआ। बादशाह औरंगजेब के शासनकाल में "यह घोषणा की गई कि "जो हिंदू भगवा कपड़े पहनना छोड़कर काले कपड़े पहनेंगे उनको राज्य की ओर से सुविधाएं प्रदान की जायेंगी और जजिया कर से मुक्ति मिलेगी।" अनेक हिंदू शाही फरमान के झांसे में आ गये । संन्यासियों ने घोषणा की कि "जो हिंदू ऐसा करेगा वह सीधा नरक में जायेगा।" नरक के भय से अनेक हिंदुओं ने शाही फरमान से दूरी बनाए रखी । औरंगजेब ने जजिया कर सख्ती से लागू कर रखा था । सभी को टैक्स चुकाना पड़ता था भले ही धनी हो या निर्धन । पवित्र नदियों में स्नान करने पर भी टैक्स था । जो स्नान करने जाता था उसे ही टैक्स देना पड़ता था लेकिन संन्यासियों ने वह टैक्स कभी नहीं चुकाया । यदि शाही सिपाही उनसे जबरन टैक्स लेने पर उतारू हो जाते थे तो संन्यासी उनके सामने नंगे खड़े हो जाते थे । यदि फिर भी सिपाही नहीं मानते थे तो संन्यासी उनसे सीधे भिड़ जाते थे । मैदानी क्षेत्रों में मुसलमानों ने भारी तबाही मचाई थी तथा मठ - मंदिरों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया था । संन्यासियों ने मैदानों को त्यागकर अपने ठिकाने उच्च और दुर्गम पहाड़ों पर बनाये और वहां अपने पूजास्थल बनाए जहां मुसलमान लोग जा नहीं सकते थे । इसीलिए हमारे अनेक पूजास्थल पहाड़ों पर हैं । ऐसा करने से ही हमारे अनेक पूजास्थल अबतक सुरक्षित रह सके हैं । इसका श्रेय केवल संन्यासियों ( गोस्वामियों ) को जाता है । कुछ दशनाम शैव संन्यासी और गृहस्थ मुस्लिम अत्याचारियों से बचने के लिए पूर्वी उत्तर प्रदेश , बिहार , बंगाल और उड़ीसा से भागकर नेपाल में जा बसे । जांच कराकर देख लो भारत और नेपाल के दशनाम गोस्वामियों का डीएनए एक ही मिलेगा। अंग्रेजों ने भारत पर लगभग दो सौ साल राज किया । अंग्रेजों ने अपने शासनकाल में सभी राजाओं, ज़मीनदारों और दबंगों के हथियार जब्त कर लिए थे या उनको लाइसेंस देकर हथियार दिये थे । संन्यासियों ने कभी भी उस कानून को नहीं माना । वे हथियारों के रूप में भाले , तलवारें , चिमटे , गदाएं इत्यादि रखते थे और संकट आने पर वे उनका प्रयोग भी करते थे । "बंगाल का संन्यासी विद्रोह" ( 1769 - 1770 ) भारतीय इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना है । अंग्रेजों ने संन्यासियों को "राज विद्रोही" ( State Rebels ) घोषित कर रखा था तथा वे संन्यासियों को अंग्रेजी सेना में भर्ती नहीं करते थे। इस आशय का एक समझौता अंग्रेजी सरकार और भोट सरकार के बीच हुआ था । दशनाम शैव संन्यासी मरना पसंद करते थे लेकिन किसी के सम्मुख झुकना नहीं । वे लोक से ज्यादा परलोक में विश्वास करते थे । वे जल्दी से जल्दी इस लोक को छोड़ने के बारे में सोचते थे , इसलिए वे मौत को मोक्ष का एक साधन मानते थे । सनातन धर्म ( हिंदू धर्म ) तो कभी का मर गया होता यदि शैव संन्यासी उसे बचाने का प्रयास न करते । |
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