संकलन- आदित्य भारती मोरवन म.प्र.
श्री महादेव गिरि 'शम्भू' का जन्म सन् 1901 ई. को यू.पी. में फाफामऊ कस्बे के निकट उत्तम गिरि की चकिया में हुआ था । उनके पिता का नाम श्री सेवा गिरि था जो कि एक साधारण कृषक थे । उन्होंने सन् 1915 ई.में आठवीं कक्षा उत्तीर्ण की जिसको मिडिल स्कूल कहा जाता था । उनके दो भाई और दो बहनें थीं । उनके भाइयों के नाम श्री कैलाश गिरि एवं श्री अचल गिरि थे । सन् 1920 ई. में उन्होंने एक सरकारी स्कूल में पांच रुपये मासिक पर अध्यापक की नौकरी कर ली । 1936 ई. के कुम्भ मेले में उनकी मुलाकात निरंजनी अखाड़े के महंत से हुई । महंत को यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि श्री गिरि उर्दू और अंग्रेजी पर समान अधिकार रखते थे । महंत ने उनको गोस्वामियों को संगठित और जाग्रत करने की सलाह दी ।
श्री गिरि ने 1936 ई. में नौकरी छोड़ दी । उन्होंने प्रयागराज ( इलाहाबाद ) के दारागंज मोहल्ले में एक माली के मकान को किराए पर लेकर सन् 1936 ई. में "अखिल भारतीय गोस्वामी महासभा" का गठन किया । उन्होंने अखाड़ों के आचार्यों , महामंडलेश्वरों और साधु - संतों से मुलाकात की । अपने निवास के एक कमरे में उन्होंने "गोस्वामी प्रैस" की स्थापना की और "गोस्वामी" पत्रिका को प्रकाशित करना शुरु किया । उन्होंने विभिन्न ग्रंथों का अध्ययन किया । उन्होंने गांव - गांव और शहर - शहर जाकर गोस्वामियों से सम्पर्क किया । वे दक्षिण भारत में भी गये तथा वहां के गोस्वामियों के विचार जाने । उन्होंने उत्तर भारतीय गोस्वामियों और दक्षिण भारतीय गोस्वामियों के बीच एक सेतु का काम किया । उनके पास जर्मन जनवादी गणतंत्र और सोवियत रूस से पत्रिकाएं भी आती थीं । उस समय गोस्वामियों में ऊंच - नीच का भेदभाव होता था और आपस में विवाह नहीं करते थे । उन्होंने गोस्वामियों के भेदभाव को मिटाकर वैवाहिक सम्बंध कराये । वे नेपाल और श्रीलंका भी गये और वहाँ के गोस्वामियों से सम्पर्क साधा । नेपाल के प्रसिद्ध नेता डॉ. तुलसी गिरि के आमंत्रण पर उन्होंने काठमांडू में गोस्वामियों की कई सभाएँ कीं ।
एक बार की बात है कि दक्षिण भारत ( हैदराबाद ) के राजा मुकुंद गिरि विमान से प्रयाग पधारे और फिर अपने अंगरक्षकों के साथ उनके घर पहुंचे । पुलिस के सिपाहियों को देखकर उनके बच्चे बहुत डर गये क्योंकि उन्होंने सोचा कि उनके पिता को पकड़ने के लिए पुलिस पहुंची थी । लेकिन ऐसा कुछ नहीं था । राजा जी ने उनसे मुलाकात की और जमीन पर टाट के बोरे पर बैठकर भोजन किया । फिर राजा जी उन्हें अपने साथ दक्कन हैदराबाद ले गए । महान संत देवरहवा बाबा कई बार उनके घर पधारे थे ।
संगम पर यजमान द्वारा दिये जाने वाले दान को लेकर ब्राह्मणों और गोस्वामियों में भयंकर झगड़ा हो गया और केस इलाहाबाद हाईकोर्ट में जा पहुंचा ।ब्राह्मणों ने कोर्ट में अपना पक्ष रखा कि "प्रयाग भगवान विष्णु की भूमि है ,अत: यहाँ के दान पर केवल ब्राह्मणों का हक है।" श्री गिरि ने अपना पक्ष रखा कि "गंगा तो भगवान शिव की जटाओं से निकलकर प्रयाग में बही है । गोस्वामी लोग शिववंशी हैं , अतः दान पर गोस्वामियों का हक बनता है।" बताते हैं कि "कोर्ट ने निर्णय दिया कि संगम के थल पर दिया गया दान ब्राह्मणों का होगा लेकिन गंगा के जल में खड़े होकर दिया गया दान गोस्वामियों का होगा ।" तब से लेकर आजतक ऐसा ही होता चला आ रहा है । उन्होंने शोध द्वारा "गोस्वामी कुल परिचय" नामक एक दुर्लभ अंक प्रकाशित किया । सन् 1969 ई.में हृदय गति रुक जाने से मिर्जापुर ( पूर्वी उत्तर प्रदेश ) में उनका स्वर्गवास हो गया । वे समाज के कार्य में इतना लीन रहते थे कि पारिवारिक दायित्व भी नहीं निभा सके । वे अपने माता-पिता के अंतिम संस्कारों में शामिल भी नहीं हो सके । उनके लघु भ्राता श्री कैलाश गिरि ने उनके पुत्र - पुत्रियों के विवाह किये जो कि एक लब्धप्रतिष्ठ व्यवसायी बन गये थे । श्री कैलाश गिरि अवधूत साधना में सिद्धहस्त थे जिसका लाभ बड़े-बड़े व्यवसायी और न्यायाधीश भी उठाते थे । उनके सबसे छोटे भाई श्री अचल गिरि जीवनपर्यंत हरि कीर्तन में संलग्न रहे । स्व. श्री महादेव गिरि 'शम्भू' के परिवारजन वर्तमान समय में प्रयागराज ( इलाहाबाद ) में रहते हैं ।
ऐसे महान गोस्वामी गौरव को मेरा शत् - शत् नमन।
© महाग्रंथ "गोस्वामीनामा" के अध्याय 31 "गोस्वामी गौरव" के पृष्ठ 393 - 396 से उद्धृत । लेखक - गिरिवर गिरि गोस्वामी निर्मोही , नयी दिल्ली , 9818461932
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