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यति का अर्थ और यतियों का इतिहास

संकलन - आदित्य भारती मोरवन

यति का अर्थ :- यति शब्द संस्कृत की  "यत्" धातु से बना है जिसका अर्थ होता है --"यत्न करना / प्रयास करना / चेष्टा करना / दमन करना / नियंत्रण करना / संयत करना / अनुशासित करना " इत्यादि । इस हिसाब से देखें तो  संयमी , जितेंद्रिय , पवित्र , धर्मात्मा , दृढ़ प्रतिज्ञ , स्वसंयत , प्रतिबद्ध, महाव्रती , मर्यादित व्यक्ति को यति कहा जाता है । ऐसा व्यक्ति जिसने अपनी इन्द्रियों को जीत रखा है , मन पर काबू कर रखा है और आत्मा का स्वामी है यति कहलाने का अधिकारी है । रामायण की कथा में लक्ष्मण जी को यति कहा गया है जबकि वे क्षत्रिय थे । यति इसलिए कहलाये क्योंकि चौदह वर्षों के वनवास के दौरान उन्होंने ब्रह्मचर्य का पालन किया और चौदह  वर्षों तक एक पल को भी सोये नहीं । रामजी और सीता जी कुटिया के अंदर सोते थे लेकिन लक्ष्मणजी कुटिया के बाहर रहकर पहरा देते थे । मेघनाद अति बलशाली और मायावी था । उसको वरदान मिला हुआ था कि "उसे वही व्यक्ति मार सकता था जो चौदह वर्षों से ब्रह्मचारी रहा हो और नींद का सेवन नहीं करता हो।" ये दोनों गुण लक्ष्मण जी में विद्यमान थे तभी तो वे मेघनाद को मार सके।


उपाधि से जाति तक का सफ़र : - प्राचीन काल में यति  एक उपाधि थी लेकिन अब यह एक जाति है जिसे कर्नाटक में जति या जत्ती के नाम से भी जाना जाता है । यति कर्नाटक , आंध्र प्रदेश , तेलंगाना , मध्य प्रदेश , गुजरात , राजस्थान में पाये जाते हैं । कर्नाटक में तो इनकी थोक में भरमार है । 


यतियों का इतिहास :- यतियों का इतिहास बहुत पुराना है । उस समय यतियों को संन्यासियों , मुनियों और तपस्वियों की श्रेणी में रखा जाता था । वेदों , आरण्यकों , ब्राह्मण ग्रंथों , संहिताओं , उपनिषदों , रामायण , महाभारत , स्मृतियों और  पुराणों में यतियों का जिक्र मिलता है । यतियों का प्राचीन उल्लेख ऋग्वेद ( 7-4-9 , 9-3-9 , 10-72- 7 ) , तैत्तिरीय संहिता ( 2-4-9-2 , 6-2-7-5 ) , काठक संहिता ( 8-5 , 11-10-15-6 , 27-7 ) , सामवेद ( 2-3-4) , अथर्ववेद ( 2-5-3 ) , पंचविंश ब्राह्मण ( 8-14 , 13-4-6 ) , कौषतकी उपनिषद ( 1-3 ) , आश्वावलायन श्रौतसूत्र  ( 6-3-1 ) इत्यादि में मिलता है । ऐतिहासिक पुस्तकों में भी यतियों का जिक्र मिला है । ईरान के इतिहास में यतियों का उल्लेख मिला है -- "ईसा पूर्व 1300 में सुमाराम यति ने अत्यंत बलशाली अशा असुर का पराभव किया था । ये यति बड़े पराक्रमी होते हैं" --- ( History Of Persia , Volume 1 , Page 85 ) । वैदिक काल में यति एक प्राचीन घराना ( Race / Clan )  होता था । " यतियों का सम्बंध अत्यंत पुरातन यज्ञकर्ता अंगिरस एवं भृगु से रहा है"--- ज्ञानकोष, भाग 3, पृष्ठ सं० 170 ।


यति एवं यज्ञ :- यति और यज्ञ में गहरा सम्बंध रहा है । यति लोग देवताओं को प्रसन्न करने और चमत्कारिक शक्तियों को प्राप्त करने के लिए यज्ञ करते थे । अग्नि की उपासना को ज्यादा महत्व दिया जाता था ।


यति और गोस्वामी में सम्बंध :- वैसे तो यति लोग लिंगायतों की वीरशैव शाखा में आते हैं जिसकी स्थापना 12वीं ईसा शताब्दी के संत एवं कूटनीतिज्ञ भासवाचार्य ने कर्नाटक में की थी । हालांकि लिंगायत लोग अपने को शैवमतावलम्बी बताते हैं लेकिन वे वैदिक साहित्य , संस्कृति और वर्णव्यवस्था को नहीं मानते हैं जबकि गोस्वामी लोग शैव होते हुए भी इन सब चीजों को मान्यता देते हैं । इसी आधार पर कुछ लोग यतियों को गोस्वामी मानने को तैयार नहीं हैं जबकि यति लोग अपने को गोस्वामी कहलाने में गर्व का अनुभव करते हैं । आओ , इसी बात को गहराई से जानें --- 

1- अर्थ में समानता :-- यति का अर्थ एक ऐसा व्यक्ति जो अत्यंत पवित्र , आत्मसंयमी और धर्मात्मा है और गोस्वामी का भी यही भाव है । जिस व्यक्ति ने अपनी इंद्रियों , मन , मस्तिष्क को वश में कर लिया है और जो आत्मा का स्वामी है वह गोस्वामी कहलाने का हकदार है ।

2 - ऐतिहासिक समानता ;- प्राचीन काल में यति और गोस्वामी दोनों पर्यायवाची रहे हैं । उस समय गोस्वामी को शैव संन्यासी कहा जाता था जिसका दर्जा भगवान के बाद दूसरा माना जाता था । यति और गोस्वामी के कार्य और जीने के तरीके भी एक जैसे थे।

3 - गोस्वामियों की एक उप शाखा के रूप में यति :- दशनाम गोस्वामियों की दस शाखाएं हैं --- वन , अरण्य , तीर्थ , आश्रम , गिरि , पर्वत , सागर , सरस्वती , भारती , पुरी । गोस्वामियों की 52 उप शाखाएं हैं जिन्हें मढ़ियों के नाम से जाना जाता है । अरण्य , तीर्थ , आश्रम , पर्वत , सागर और  सरस्वती ने कोई उप शाखा ( अर्थात मढ़ी ) स्थापित नहीं की जबकि वन ने चार , भारती ने चार , पुरी ने सोलह और गिरि ने तिब्बत में वेदगिरि की लामा मढ़ी सहित अट्ठाईस मढ़ियां स्थापित कीं जिनमें से एक मढ़ी का नाम  -- "सिंह श्याम यति" -- है । इसका सीधा अर्थ है कि "सिंह श्याम यति" नामक कोई व्यक्ति गिरि शाखा में दीक्षित हो गया था ।" तभी से यति लोग गोस्वामियों से विशेष लगाव रखते हैं और अपने को गोस्वामी बताते हैं । इस लिहाज से देखें तो वीरशैव ( लिंगायत ) होते हुए भी भारत के भूतपूर्व उप राष्ट्रपति स्व. श्री बी.डी. जत्ती भी गोस्वामी ही थे । उनके उत्तराधिकारी भी ऐसा ही दावा कर रहे हैं ।

4- मृतक को  समाधि :- गोस्वामी लोग अपनी उत्पत्ति संन्यासियों से मानते हैं । ये अपने मुर्दों का दाह संस्कार नहीं करते हैं बल्कि उनको ज़मीन में गाड़ते हैं जिन्हें ये समाधि की संज्ञा देते हैं । यतियों में भी मुर्दों को समाधि दी जाती है ।

दशनाम गोस्वामी परम्परा का संक्षिप्त सारांश

5 -आपस में विवाह नहीं :- ब्राह्मण लोग समान ऋषि गोत्र में विवाह नहीं करते हैं लेकिन गोस्वामी लोग समान ऋषि गोत्र में विवाह करते हैं लेकिन समान मढ़ी ( कुलगोत्र / उप शाखा ) में विवाह नहीं करते हैं । गोस्वामियों के लिए मढ़ी ही गोत्र है । समान मढ़ी के वर और कन्या आपस में भाई - बहन माने जाते हैं जिनकी आपस में शादी वर्जित है । यति अपने को एक जाति न मानकर गोस्वामियों की एक मढ़ी मानते हैं । अत: यतियों के विवाह यतियों में नहीं होते हैं । यतियों के विवाह गोस्वामियों के साथ होते हैं ।


एक विशेष बात :- मेरा यह लेख ऐतिहासिक प्रमाणों पर आधारित है जो कि मैंने निष्पक्ष होकर लिखा है । मैं यतियों को गोस्वामियों में शामिल करने की वकालत नहीं कर रहा हूँ । यह तो आम गोस्वामी को तय करना है ।


महाग्रंथ "गोस्वामीनामा" से उद्वधृत ।  लेखक :- गिरिवर गिरि गोस्वामी निर्मोही , नयी दिल्ली , 9818461932


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