दशनाम पंथ के माता - पिता कौन ?


संकलन- आदित्य भारती गोस्वामी मोरवन नीमच म.प्र. 

शैव धर्म को संसार का प्राचीनतम धर्म माना जाता है जिसके इष्टदेव भगवान शिव हैं और वैष्णव धर्म के इष्टदेव भगवान विष्णु हैं । भगवान शिव को अपना इष्टदेव माननेवाले लोगों को शैव और भगवान विष्णु को अपना इष्टदेव माननेवाले लोगों को वैष्णव कहते हैं ।

                          शैव सम्प्रदाय और वैष्णव सम्प्रदाय विराट हिंदू धर्म के दो प्रमुख स्तम्भ हैं । ये हिंदू धर्म की दो विशाल भुजाएँ हैं अथवा दो नेत्र हैं । इनके बिना हिंदू धर्म का अस्तित्व नहीं हो सकता । हिंदू धर्म में अनगिनत देवी -  देवता हैं , अतः भारत को बहुदेववादी देश माना जाता है लेकिन पंचदेवों की मान्यता सबसे ज्यादा है जिसे आदि शंकराचार्य ( 788-820 ई.) ने शुरू किया था । पंचदेवों में शिव , शक्ति ( पार्वती/ दुर्गा ) ,  गणेश , विष्णु और  सूर्य शामिल हैं । इन पंचदेवों में शिव, शक्ति और गणेश को शैव सम्प्रदाय से सम्बद्ध माना जाता है और विष्णु एवं सूर्य को वैष्णव सम्प्रदाय से सम्बद्ध माना जाता है  अर्थात हिंदू धर्म के 100% अस्तित्व में से 60% हिस्सा शैव सम्प्रदाय का है और 40% हिस्सा वैष्णव धर्म का है । यदि शक्ति को लक्ष्मी मान लें तो फिर वैष्णव संप्रदाय की हिस्सेदारी 60% की हो जाती है । लेकिन हिंदू धर्म में शैव सम्प्रदाय और वैष्णव संप्रदाय की हिस्सेदारी 50% - 50% की मानी जाती है क्योंकि शक्ति दोनों में कॉमन है ।

                         इतिहास , धार्मिक ग्रंथों , फिल्मों और टीवी सीरियलों को पढ़ने और देखने से पता चलता है कि प्राचीनकाल में शैव सम्प्रदाय और वैष्णव संप्रदाय एक-दूसरे के कट्टर विरोधी थे। उनमें खूनी संघर्ष रहा था । ये एक-दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते थे । वैष्णव संप्रदाय आर्य संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है तो शैव सम्प्रदाय अनार्य संस्कृति का । हिंदू धर्म आर्य और अनार्य संस्कृतियों का सम्मिश्रण है । वैष्णव सम्प्रदाय का रिश्ता आर्यों से है जबकि शैव सम्प्रदाय का रिश्ता द्रविड़ों से है । वैष्णव संप्रदाय का सम्बंध आर्य सभ्यता से है जबकि शैव सम्प्रदाय का सम्बंध सिन्धु घाटी सभ्यता से है। अब से 100 सालों पहले आर्य सभ्यता को भारत की प्राचीनतम सभ्यता माना जाता था ।  सन् 1922 ई. में हड़प्पा , मोहनजोदड़ो , लोथल , कालीबंगा इत्यादि स्थानों की खुदाई से यह सिद्ध हो चुका है कि सिंधु घाटी की सभ्यता तो आर्य सभ्यता की पूर्वगामी है । सिंधु घाटी सभ्यता में विष्णु , लक्ष्मी , ब्रह्मा , सूर्य , गणेश , राम , कृष्ण , हनुमान , पार्वती , काली इत्यादि का कोई जिक्र नहीं है जबकि शिव के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है । इससे सिद्ध होता है कि शिव तो विष्णु से बहुत पहले हुए हैं । ऋग्वेद आर्यों का सबसे पहला ग्रंथ है और संसार का सबसे पहला ग्रंथ है जिसमें विष्णु को देवता स्वीकारा है किन्तु इसमें शिव का कोई जिक्र नहीं है । लेकिन कालांतर में अन्य वेदों और धार्मिक ग्रंथों में शिव के अस्तित्व को रुद्र के रूप में स्वीकार किया गया है । शिव को प्रागैतिहासिक , अनार्य , अवैदिक और आदिवासी देवता माना गया है जिससे आर्य लोग द्वेष रखते और नफरत करते थे । शिव बहुत शक्तिशाली रहे होंगे तभी तो आर्य राजा दक्ष के दामाद बने थे । आसानी से कोई व्यक्ति दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार करने को तैयार नहीं होता है । रिश्तेदारी अवश्य हो गई थी लेकिन राजा दक्ष ने शिव के प्रति वितृष्णा को त्यागा नहीं था । तभी तो यज्ञ में दक्ष ने शिव को आमंत्रित नहीं किया था और यज्ञ में शिव का हिस्सा भी नहीं निकाला गया था । परिणाम यह रहा कि सती ने यज्ञकुंड में कूदकर आत्मदाह कर लिया ।

                         कालांतर में आर्यों ने शिव को मान्यता दी और वेदों , पुराणों में उनका भरपूर वर्णन आया । गोस्वामी तुलसीदास ने "श्रीरामचरितमानस" में शैव सम्प्रदाय और वैष्णव संप्रदाय में अच्छा तालमेल बैठाने का प्रयास किया है । 

प्राचीनकाल में शिव के अनुयायियों को शैव संन्यासी कहा जाता था। शास्त्रों के अध्ययन से पता चला है कि प्राचीनकाल में संन्यासी बनने का एकमात्र अधिकार ब्राह्मणों को था । ब्राह्मण लोग शैव सम्प्रदाय में दीक्षित हो गए थे । बस वहीं से ही दशनाम शैव संन्यासियों का प्रादुर्भाव हुआ । इसीलिए ब्राह्मणों और दशनाम गोस्वामियों के ऋषि गोत्र समान हैं । आदि शंकराचार्य ( 788- 820 ई.) संन्यासी बनने से पूर्व स्वयं एक उच्च कोटि के ब्राह्मण थे लेकिन वे शैव संन्यासी बन गये । आदि शंकराचार्य ने दशनाम शैव संन्यासियों ( वन , अरण्य , तीर्थ ,आश्रम , गिरि , पर्वत , सागर , सरस्वती , भारती , पुरी उपनाम धारकों ) को संगठित करके सनातन धर्म ( हिंदू धर्म ) की रक्षा और प्रचार-प्रसार का दायित्व उन्हें सौंपा था । जैसे ही ऐसा किया गया त्योंही दशनाम पंथ लोगों की नज़रों में आ गया। आदि शंकराचार्य के विरोधी उनकी इस बात के लिए आलोचना करते हैं कि उनके अधिकांश अनुयायी या कारसेवक ब्राह्मण थे । यह सिलसिला मुगल बादशाह अकबर के ज़माने तक चला । अकबर की धार्मिक नीति से क्रुद्ध होकर दशनाम संन्यासी मधुसूदन सरस्वती ने क्षत्रियों को भी शैव संन्यासी ( अर्थात दशनाम गोस्वामी ) बनने की आज्ञा दे दी । क्षत्रियों को शैव संन्यासी अखाड़ों में भर्ती किया जाने लगा क्योंकि ब्राह्मण अच्छे तर्क तो दे सकते थे लेकिन मुसलमानों के विरुद्ध लड़ाई में वे अच्छे योद्धा सिद्ध न हो सके । अतः विद्वत्ता के स्थान पर बलिष्ठता को मान्यता दी गई । कालांतर में वैश्यों को भी दीक्षित किया गया लेकिन शूद्रों को दीक्षित करने के उदाहरण नहीं मिलते ।

                           शैव संन्यासियों का बीजमंत्र तो "ओइ्म नमो शिवाय" है परंतु वैष्णव धर्म के साथ समंवय स्थापित करने के लिए दशनाम संन्यासियों से "ओइ्म नमो नारायण" बुलवाया गया ।  दशनाम गोस्वामियों का अभिवादन वाक्य "ओइम नमो नारायण" है । नारायण का अर्थ है " विष्णु" । यह पक्का सबूत है कि दशनाम गोस्वामी लोग ब्राह्मण हैं लेकिन वे शैव सम्प्रदाय में दीक्षित हो गये थे । अतः  दशनाम गोस्वामियों में कुछ गुण शैवों के हैं और कुछ गुण वैष्णवों के हैं । यही बात दशनाम गोस्वामियों को अन्य शैव सम्प्रदायों से अलग करती है । दशनाम गोस्वामियों का ज्यादा झुकाव शैव धर्म की ओर है । इस प्रकार यह कहना न्यायसंगत है कि दशनाम गोस्वामियों का पिता शैव सम्प्रदाय है जबकि इनकी माता वैष्णव संप्रदाय है। 


महाग्रंथ "गोस्वामीनामा" से । लेखक - गिरिवर गिरि गोस्वामी निर्मोही , नयी दिल्ली , 9818461932

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