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गोस्वामी महापुरुषों, क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों का पाठ्यक्रमों में जिक्र नहींं

 


आप देख रहे हो गोस्वामी चेतना समाचार
गोस्वामियों का इतिहास का अतीत अत्यंत गौरवशाली रहा है । देश , धर्म और संस्कृति को बचाने में गोस्वामियों का विशेष योगदान रहा है लेकिन विद्यालीय और महाविद्यालीय पुस्तकों और पाठ्यक्रमों में गोस्वामी महापुरुषों , क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों का कोई जिक्र नहीं है। यह एक खेद और शर्म की बात है । देश , धर्म और संस्कृति को गोस्वामियों ने बचाया इस बात को लोग जानते तक नहीं हैं । देश की सेवा में अनेक गोस्वामियों ने अपने प्राण न्योछावर किये लोगों को आभास तक नहीं है । आओ, इस बारे में विहंगम दृष्टि डालें। भारत के सबसे प्राचीन धर्म को सनातन धर्म कहते हैं जिसे अब हिंदू धर्म कहा जाता है । प्राचीन काल में भारत में एकमात्र धर्म सनातन धर्म था जो कि अपनी उन्नति के शिखर पर पहुंचा और जिसकी ख्याति सर्वमान्य थी लेकिन ईसा पूर्व छठी शताब्दी में भारत में दो नये धर्म उभरे जिनके नाम थे जैन धर्म और बौद्ध धर्म । सनातन धर्म या वैदिक धर्म या आर्य धर्म को ब्राह्मण धर्म भी कहते थे क्योंकि उसमें ब्राह्मणों का वर्चस्व था । जैन धर्म और बौद्ध धर्म को क्षत्रियों ने शुरू किया था , अत: वे दोनों धर्म क्षत्रिय धर्म कहलाये । वे दोनों ही धर्म सनातन धर्म के एकदम विरोधी थे । उन दोनों धर्मों ने सनातन धर्म को खुली चुनौती दी । कई राजाओं से उनको प्रश्रय मिला । बौद्ध धर्म को सम्राट अशोक , सम्राट कनिष्क , सम्राट हर्षवर्धन इत्यादि राजा - महाराजाओं ने अपनाया । सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य अपने अंतिम समय में जैन बन गया था । जनता ने भी जैन धर्म और बौद्ध धर्म का खुले दिल से स्वागत किया । जैन धर्म और बौद्ध धर्म ने वेदों और वैदिक परम्पराओं का खुलकर मज़ाक उड़ाया । बौद्ध धर्म का तो इतना बोलबाला हो गया था कि वह सनातन धर्म को निगलने को उतारू था । सम्राट हर्षवर्धन ( 606 - 647 ई० ) अंतिम हिंदू सम्राट था जो कि शैव था लेकिन उसने हिंदू धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म को अपना लिया था । ईसा की आठवीं - नौवीं शताब्दी आते - आते तो सनातन धर्म ( हिंदू धर्म ) हिंदू धर्म नष्ट होने की कगार पर था । ऐसे विकट समय में आदि शंकराचार्य ( 788-820 ई. ) ने दशनाम संन्यासियों ( तीर्थ, आश्रम, वन,अरण्य, गिरि, पर्वत, सागर, सरस्वती, भारती, और पुरी नामधारकों ) को संगठित करके सनातन धर्म ( हिंदू धर्म ) की रक्षा का भार उन्हें सौंप दिया । यह एक क्रांतिकारी कदम था । शैव संन्यासी अखाड़ों की स्थापना हुई जिसमें केवल दशनामधारक शैव संन्यासी होते थे । संन्यासी अखाड़ों का मतलब था धार्मिक सैन्य टुकड़ियाँ ( Religious Military Troops ) । उन दशनाम शैव संन्यासियों ने बौद्ध धर्म से सनातन धर्म ( हिंदू धर्म ) की रक्षा की । सनातन धर्म ( हिंदू धर्म ) की रक्षा करने और इसके प्रचार-प्रसार करने करने के लिए गोस्वामियों को न केवल बौद्धों से लड़ना पड़ा बल्कि जैनों , मुसलमानों और अंग्रेजों से भी लड़ना पड़ा । मुसलमानों ने इस देश पर लगभग आठ सौ साल और अंग्रेजों ने लगभग दो सौ साल राज किया । गुलामी का इतना लम्बा इतिहास दुनिया में शायद ही किसी देश का रहा हो । मुसलमानों और अंग्रेजों के सामने सभी नतमस्तक हुए लेकिन संन्यासियों ने ऐसा कभी नहीं किया । उन्होंने अपने प्राण दे दिये लेकिन वे किसी के आगे झुके नहीं । मुस्लिम काल में गोस्वामियों ( अर्थात दशनाम संन्यासियों ) ने आतयायियों का सदैव विरोध किया और उन्हें सीधी टक्कर दी । राजपूत काल में शैव संन्यासी अखाड़ों को राजाओं , सेनापतियों , जम़ीनदारों , सेठ - साहूकारों और जागीरदारों की ओर से आर्थिक सहायता मिलती थी । दिल्ली - अजमेर के राजा पृथ्वीराज चौहान की ओर से शैव संन्यासी अखाड़ों को हर प्रकार की सहायता प्रचुर मात्रा में मिलती थी । उस ज़माने में हर राज्य का एक झण्डा होता था । यदि हिन्दू राजा मुस्लिम राजा से हार जाता था तो राज्य का झण्डा उसके सामने झुकाना पड़ता था । पृथ्वीराज चौहान ने ध्वज के दो प्रकार कर दिए --- राज्य ध्वज और राष्ट्र ध्वज । पृथ्वीराज चौहान का कहना था कि भले ही राज्य ध्वज मुसलमानों के आगे झुक जाये लेकिन राष्ट्र ध्वज मुसलमानों के आगे कभी नहीं झुकना चाहिए । राष्ट्र ध्वज का रंग भगवा होता था जिसको उसने शैव संन्यासियों को सौंप दिया था । पृथ्वीराज चौहान के वचन को निभाने के लिए शैव संन्यासियों ने राष्ट्र ध्वज को कभी भी मुसलमानों के आगे नहीं झुकने दिया भले ही ऐसा करते हुए उनके प्राण निकल गये हों । शैव संन्यासी राजाओं को लड़ने के गुर सिखलाते थे । वे सेना का नेतृत्व भी करते थे । वे युद्धभूमि में राजा के साथ जाते थे । यदि राजा विचलित होता था तो उसे ढांढ़स बंधाते थे । जीत के लिए मंत्रोच्चार करते थे। बंगाल में द्विशासन ( 1765-72 ई.) के दौरान गोस्वामी संन्यासियों ने विद्रोह किया था जिसे भारतीय इतिहास में "संन्यासी विद्रोह"से जाना जाता है। अंग्रेजों ने गोस्वामियों को "राज विद्रोही" ( state rebels ) घोषित कर दिया था जिसके आधार पर दशनाम संन्यासियों ( गोस्वामियों ) को अंग्रेजी सेना में भर्ती नहीं किया जाता था । कालांतर में शैव संन्यासियों की दो शाखाएं हो गईं --- विरक्त और गृहस्थ । विरक्तों को विवाह करने और संतान उत्पन्न करने की आज्ञा नहीं थी जबकि गृहस्थों को विवाह करने और संतान करने की आज्ञा होती थी । शस्त्रधारी शैव गृहस्थों को "महापुरुष" कहा जाता था । वे गोसाईं ( गोस्वामी ) कहलाते थे । वे युद्ध में लड़ने के लिए जाते थे। वे सेनाओं में भर्ती होते थे । इतिहास में यह पढ़ाया जाता है कि लड़ने का काम केवल राजपूतों का होता था । यह धारणा एकदम ग़लत है ।दशनाम शैव संन्यासी ( गृहस्थ महापुरुष ) भी रणबांकुरे रहे हैं । यदि हम कर्नल जेम्स टॉड द्वारा लिखित पुस्तक -- "राजस्थान का इतिहास" तथा अन्य ऐतिहासिक दस्तावेज पढ़ते हैं तो हम पाते हैं कि गोस्वामी ( गोसाईं ) लोग अच्छे योद्धा होते थे । दिल्ली - अजमेर के चौहानों , मालवा के परमारों , मेवाड़ के सिसोदियों , बंगाल के नवाबों , पूना के पेशवाओं , ग्वालियर के सिंधियाओं , इंदौर के होल्करों , नागपुर के भौंसलों , बड़ोदा के गायकवाड़ों की सेनाओं में गोसाईं ( गोस्वामी ) सैनिक होते थे । दशनाम गोस्वामियों में सबसे अधिक नाम राजा अनूप गिरि अर्थात राजा हिम्मत बहादुर गिरि ( सन् 1734 - 1804 ई.) का रहा है जिसका राज सिकन्दरा , बिंदकी , बांदा , कानपुर , गोसाईंगंज , काशी , दतिया और बुंदेलखंड तक फैला हुआ था । वह बंगाल के नवाब की सेना का नेतृत्व करता था । ग्वालियर के सिंधिया महाराज और भरतपुर के जाट राजा सूरजमल से उसकी प्रगाढ़ मित्रता थी । उसके पिता राजेंद्र गिरि गोसाईं ने सूरजमल के साथ दिल्ली पर धावा बोला था जहां लड़ते हुए राजेंद्र गिरि शहीद हो गया था। गोस्वामियों में अनेक क्रांतिकारी और स्वतंत्रतासेनानी हुए हैं । यवतमाल निवासी गोस्वामी पत्रकार स्व.श्री पृथ्वी गिरि हरि गिरि ने सन् 1907 ई. में अपने अखबार "हरि किशोर" में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का एक भड़काऊ लेख छापा था । अंग्रेजी सरकार ने छापा मारकर अखबार और प्रैस को जब्त कर लिया उनपर एक हज़ार रुपयों का जु़र्माना लगाया और उनको दो वर्षों का सश्रम कारावास दिया । जेल में उन्हें तरह - तरह की यातनाएँ दी गईं । जेल में उनको बैल मानकर कोल्हू चलवाया जाता था । ऐसी यातना का परिणाम यह निकला कि जेल में उनका 29 सेर वजन कम हो गया और वे टीबी के मरीज हो गए । बाद में टीबी के कारण उनकी मृत्यु हो गई । बिहार निवासी आचार्य इंदिरा रमण गिरि देश की आजादी के लिए कई बार जेल गये । उस समय अस्पृश्यता एक बड़ा मुद्दा थी । लोग ऊंच - नीच के चक्कर में पड़े हुए थे । देश साम्प्रदायिकता और अस्पृश्यता के दौर से गुज़र रहा था । आचार्य इंदिरा रमण गिरि अस्पृश्यता के घोर विरोधी थे । महात्मा गांधी ने यरवदा जेल में दिसंबर 1932 में अछूतोद्धार पर विद्वानों की एक गोष्ठी बुलाई थी जिसमें इंदिरा रमण जी भी शामिल थे जिन्होंने गांधी जी का भरपूर समर्थन किया था । इंदिरा रमण जी ने सभा में अस्पृश्यता के विरुद्ध इतने ठोस तर्क प्रस्तुत किये कि गांधी जी को यह कहना पड़ा कि --" आज आपने भारत को बचा लिया है ।" म.प्र. के इटारसी नगर के पास स्थित रामपुर गांव के निवासी स्व. इन्दर गिरि ने भी आज़ादी की लड़ाई में भाग लिया । गांधी जी द्वारा संचालित सन् 1942 ई० के "भारत छोड़ो" आंदोलन में उन्होंने बढ़ - चढ़कर हिस्सा लिया । 10 अक्टूबर 1942 ई. को उन्हें जेल में ठूंठ दिया गया जहां उन्होंने अन्न-जल त्याग दिया । जेल अधिकारी उन्हें नली द्वारा जबरदस्ती दलिया पिलाते थे। ऐसा करने से उनके गले में इन्फेक्शन हो गया और 19 मार्च 1943 ई. को वे जेल में ही शहीद हो गये जहां आज भी उनकी समाधि विद्यमान है । स्व. दल बहादुर गिरि बंगाल तथा पूर्वोत्तर भारत में देश की आज़ादी के लिए लड़े थे। उन्हें "पूर्वोत्तर भारत का सीमांत गांधी" कहा जाता था। उन्होंने पूर्वोत्तर भारत में असहयोग आंदोलन का नेतृत्व किया। वे तीन बार जेल गये और सन् 1924 ई. में वे अत्यंत गरीबी में स्वर्ग सिधार गये। जब गांधी जी को इस बात की जानकारी मिली तो उन्हें बहुत दुख हुआ और उन्होंने स्व.दल बहादुर गिरि की निराश्रिता पत्नी श्रीमती कृष्ण माया देवी को अपने साबरमती आश्रम में शरण दी थी। ऐसे अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं जिनसे सिद्ध होता है कि गोस्वामियों ने देश , धर्म और संस्कृति के लिए बहुत कुछ किया । सभी का उल्लेख करना सम्भव नहीं है लेकिन पीड़ा इस बात की है इस बारे में सरकार और समाज को जानकारी नहीं है । जिन्होंने देश के लिए कुछ नहीं किया वे जातिबल या तिकड़बाज़ी से सत्ता पर काबिज हैं जिन्होंने देश के लिए अपना सब कुछ लुटा दिया उन्हें कोई पूछता तक नहीं है । हर जाति में दो - चार या दस - बीस क्रांतिकारी हुए हैं जिनको देश स्वतंत्र होने के सरकारी सहायता मिली , सम्मान मिला लेकिन दशनाम गोस्वामी जाति तो पूरी की पूरी क्रांतिकारी है । अंग्रेजों ने इनके लोगों को "राज विद्रोही" घोषित कर दिया था और दशनाम संन्यासियों को अंग्रेजी सेना में भर्ती करने की मनाही थी । अंग्रेजों ने दशनाम गोस्वामियों को क्रांतिकारी एवं स्वतंत्रता सेनानी माना लेकिन स्वतंत्र भारत सरकार ने ऐसा कभी नहीं माना । सरकार ने ना कोई सम्मान दिया और न कोई सहायता । मेरा सभी गोस्वामियों से अनुरोध है कि वे इस बात की जानकारी राष्ट्रपति , प्रधानमंत्री , केन्द्रीय शिक्षा एवं संस्कृति मंत्री , अपने प्रदेश के राज्यपाल और मुख्यमंत्री तक लिखित में पहुंचायें और उनसे मांग करें कि देश , धर्म और संस्कृति के लिए गोस्वामियों के योगदान को पाठ्यपुस्तकों और पाठ्यक्रमों में शामिल किया जाये । टीवी और रेडियो पर इस बारे में परिचर्चा होनी चाहिए। दशनाम गोस्वामी विद्वानों को भारत सरकार की शिक्षा समिति और सांस्कृतिक समिति में स्थान मिलना चाहिए । जगद्गुरु आदि शंकराचार्य की मूर्तियां भारत के प्रमुख स्थानों पर स्थापित होनी चाहिए । एक मूर्ति संसद परिसर में भी लगनी चाहिए । आदि शंकराचार्य का जीवनपरिचय पाठ्यक्रमों में शामिल किया जाना चाहिए क्योंकि जब आदि शंकराचार्य के बारे में कक्षाओं में पढ़ाया जायेगा तो उस समय दशनाम गोस्वामियों का जिक्र भी सुनने - सुनाने को मिलेगा । दशनाम गोस्वामी समाज के हितैषी इंदौर से बीजेपी सांसद श्री शंकर लालवानी ने यह प्रश्न संसद में उठाया था । भारत के शिक्षा मंत्री श्री रमेश पोखरियाल निशंक ने उस प्रस्ताव को एक विशेष समिति को सौंप दिया है । अभी उस पर रिपोर्ट आनी बाकी है ।

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