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अखाड़ो का अर्थ और कार्यप्रणाली

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अखाड़े का अर्थ पहलवान का अखाड़ा नहीं है बल्कि साधु-संतों की भाषा में अखाड़े का अर्थ है धार्मिक सैन्य टुकड़ी ( Religious Military Troop ) । धर्म की रक्षा के लिए साधु-संतों ने अपने आपको धर्म सैनिकों में परवर्तित कर लिया था और उनके ऐसे संगठनों को अखाड़ों का नाम दिया गया । इसका बहुत बड़ा श्रेय जगदगुरू आदि शंकराचार्य को जाता है । 

आदि शंकराचार्य ने ही कुम्भ पर साधु-संतों को इकठ्ठा होने की परम्परा डाली ताकि सनातन धर्म के लिए नियम बनाए जा सकें और सनातन धर्म में आई कमियों को दूर किया जा सके । साथ ही एक साथ सब नहाकर अपने को समान समझ सकें। 

                     सबसे पहले दशनाम शैव संन्यासी अखाड़े बने । दशनाम का अर्थ है वन , अरण्य , तीर्थ , आश्रम , गिरि , पर्वत , सागर , सरस्वती , भारती और पुरी दस उपनामधारक साधु । शैव का अर्थ है शिव को अपना आराध्य माननेवाले साधु । 

                   दशनाम शैव संन्यासी अखाड़ों की संख्या सात है --- जूना अखाड़ा , निरंजनी अखाड़ा , महानिर्वाणी अखाड़ा , आवाहन अखाड़ा , अग्नि अखाड़ा , अटल अखाड़ा , और आनंद अखाड़ा । जूना अखाड़ा सबसे बड़ा और सबसे ताकतवर है।

                        अखाड़े के मुखिया को मंडलेश्वर या महामंडलेश्वर कहा जाता है जिसका दर्जा सेनापति ( General  ) का होता है । अति विद्वान एवं अति नियमशील को मंडलेश्वर या महामंडलेश्वर बनाया जाता है । सभी साधु - संत उसकी आज्ञा का पालन करते हैं ।

अखाड़े के अंदर अन्य पदाधिकारी भी होते हैं जैसे -- कोतवाल ( Chief Police officer ) ,  थानापति ( दारोगा = Station House Officer ) , कोठारी ( Storekeeper ) , सचिव (Secretary )  इत्यादि । वर्तमान में जूना अखाड़े के महामंडलेश्वर का नाम स्वामी अवधेशानंद गिरि है जिनका कार्यालय अम्बाला ( हरियाणा ) में है । जूना अखाड़े के महासचिव का नाम स्वामी हरि गिरि महाराज है जिनका ठिकाना प्रयागराज में है । इसी प्रकार से अन्य अखाड़ों के पदाधिकारी हैं ।

                  हरअखाड़े के अपने नियम हैं । सभी को उन नियमों का पालन करना होता है , जैसे -- (1 ) अपना - तेरा करना नहीं अर्थात अखाड़े में अपने - पराये की भावना नहीं होती । हर चीज पर सभी का सामूहिक अधिकार होता है , ( 2 ) लौह - लकड़ी करना नहीं अर्थात अपने किसी भी साथी के साथ मारपीट नहीं करनी है , ( 3 ) संन्यासी बनने से पूर्व के अपने जीवन के बारे कभी भी चर्चा नहीं करना , ( 4 ) भोजन करने के लिए पंगत में एक साथ बैठना और भोजन करने के बाद एक साथ उठना , ( 5 ) स्त्री के साथ आसन साझा नहीं करना , ( 6 ) सूर्योदय से पूर्व उठकर शौचादि करने के बाद योग , ध्यान , स्नान करना , ( 7 ) पारस ( kitchen ) में अति शुद्धता बरतना और वहां हर आदमी का प्रवेश वर्जित । केवल एक या दो साधु ही वहाँ की व्यवस्था के लिए अधिकृत होते हैं , ( 8 ) जोट ( Pair ) में चलना अर्थात दो साधु एक साथ भ्रमण करते हैं ।

दशनाम शैव संन्यासियों की नकल पर वैष्णव संप्रदाय के संतों ( बैरागियों )  ने भी अपने अखाड़े बना लिए थे जिनकी संख्या तीन है -- दिगम्बर अखाड़ा , निर्मोही अखाड़ा , निर्वाणी अखाड़ा। वैष्णव संत भगवान विष्णु को अपना आराध्य मानते हैं।

संन्यासियों और बैरागियों के अलावा गुरू नानक देव के सुपुत्र श्रीचंद ने उदासीन सम्प्रदाय की नींव डाली थी । उदासीनों के दो अखाड़े वर्तमान में कार्यरत हैं । सिक्ख साधुओं का निर्मल अखाड़ा अलग से है। इस प्रकार सिक्खों के तीन अखाड़े हैं ।

साधु - संतों के कुल 13 अखाड़े हैं -- सात अखाड़े शैव संन्यासियों के , तीन अखाड़े वैष्णव साधुओं के और तीन अखाड़े उदासीन साधु - संतो के । प्रयागराज में अर्ध्द कुम्भ ( 2019 ) में किन्नर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी के नेतृत्व में  किन्नरों ने भी अपना अखाड़ा बना लिया है । इस प्रकार वर्तमान में 14 अखाड़े कार्यरत हैं । कुछ अखाड़ों में महिला साधु ( साध्वी ) भी होती हैं जिन्हें "बाई जी" कहते हैं । नागा साधु वस्त्र धारण नहीं करते हैं लेकिन बाईजी को वस्त्र पहनना अनिवार्य है ।

            अखाड़ों में कुश्ती, मल्लयुद्ध, तीर चलाना, लाठी चलाना, तलवार चलाना सिखाया जाता है। आधुनिकता के इस दौर में पिस्तौल और बंदूक चलाना भी सिखा रहे हैं । योग, प्राणायाम, समाधि भी सिखाते हैं । अखाड़ों के नियम बड़े पक्के हैं जिनका पालन करना अनिवार्य है । पालन न करने पर अखाड़े से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है । नागाओं की ट्रेनिंग कमाण्डों से भी भारी होती है। पहले एक प्रथा ज़ोरों पर थी जो कि अब देखने को नहीं मिलती कि अखाड़ों के साधुओं की जमात पूरे देश में जाकर मठाधीशों की जांच करती थी । जो मठाधीश धर्म के अनुसार आचरण नहीं करते थे उनको उनके पदों से हटा दिया जाता था।

आजकल अखाड़े अपनी भूमिकाएं ठीक से नहीं निभा रहे हैं । पूरे देश में साधु-संतों की हत्याएं हो रही हैं । अखाड़े केवल घटनाओं की निन्दा करके अपना कार्य पूरा मान लेते हैं । विरोध करने के लिए कोई अखाड़ा मैदान में नहीं उतरता है । कुछ साधु - संत राजनीतिक दलों से सम्बद्ध हैं । बड़े-बड़े राजनेता उनके भक्त या चेले बने हुए हैं । राजनेताओं के कुकृत्यों या ग़लत बयानबाजियों का वे विरोध नहीं करते हैं । अखाड़ों का जन्म धर्म और जनता की रक्षा के लिए हुआ था । जब अखाड़े साधु - संतों की या अपनी ही रक्षा नहीं कर रहे हैं तो वे धर्म और जनता की रक्षा कैसे करेंगे ? अखाड़ों को अपनी सोच और कार्यप्रणाली को बदलने की आवश्यकता है । यदि ऐसा नहीं किया गया तो अखाड़ों का औचित्य ही समाप्त हो जायेगा । 

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