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दशनाम गोस्वामी लोग --- शैव एवं शाक्त दोनों हैं

                                               

आप देख रहे हे गोस्वामी चेतना समाचार
प्राचीन काल में भारत में एक ही धर्म था जिसके समय - समय पर अनेक नाम रहे हैं , जैसे सनातन धर्म , आर्य धर्म , वैदिक धर्म , ब्राह्मण धर्म , भागवत धर्म इत्यादि । आर्य धर्म और वैदिक धर्म को ब्राह्मण धर्म इसलिए कहा जा क्योंकि उसमें ब्राह्मणों का बोलबाला था । ईसा पूर्व छठी शताब्दी में वैदिक धर्म के विरुद्ध दो नये धर्म -- जैन धर्म और बौद्ध धर्म आकर खड़े हो गए । उन दोनों के प्रवर्तक क्षत्रिय थे । धर्म की सत्ता ब्राह्मणों के हाथों में से फिसलकर क्षत्रियों के हाथ में आ गई । कई शताब्दियों तक इन धर्मों का एक - दूसरे से संघर्ष रहा । ये एक - दूसरे के खून के प्यासे रहे। पौराणिक काल में धर्मों का विभाजन पंथों और सम्प्रदायों में हो गया । पंथों और सम्प्रदायों की बाढ़ सी आ गई । नये नये देवी - देवताओं को मान्यता मिली । नयी - नयी पूजापद्धतियों का जन्म हुआ । जैन धर्म के दो टुकड़े हो गए --- दिगंबर जैन और श्वेताम्बर जैन । बौद्ध धर्म के भी दो टुकड़े हो गये -- हीनयान और महायान । सनातन धर्म ( हिंदू धर्म ) भी अनेक पंथों और सम्प्रदायों बंट गया जिनके अपने - अपने इष्टदेव, पूजापद्धतियां और मान्यताएं थीं । सभी अपने को महान एवं श्रेष्ठ बताने लगे और दूसरों को निम्न और घटिया । सनातन धर्म में कुकुरमुत्तों की तरह अनेक पंथ और सम्प्रदाय पैदा हो गये , जैसे -- शैव , वैष्णव , शाक्त , गणापत्य , सूर्योपासक , यमोपासक , चर्वाक , वामाचारी , तांत्रिक इत्यादि। वेदों के ज्ञान को भुलाकर नयी - नयी मनगढ़ंत कथाओं और कहानियों का दौर चल पड़ा जिसे पौराणिक काल कहते हैं । वैसे पुराण का अर्थ होता है "पुरानी कथा" । अतः पौराणिक काल का अर्थ हुआ "पुरानी कहानियों का काल" ( Age of old stories ) । आदि शंकराचार्य ( 788 - 820 ई. ) के युग में हमारे देश में पचासों पंथ या सम्प्रदाय थे जो कि आपस में लड़ते - झगड़ते रहते थे जिनमें से पांच पंथ या सम्प्रदाय सबसे अधिक शक्तिशाली थे --- शैव , वैष्णव , शाक्त , गणापत्य और सूर्योपासक जिनके इष्टदेव थे -- शिव , विष्णु , शक्ति , गणेश और सूर्य । इन पांचों को मान्यता देते हुए आदि शंकराचार्य ने "पंचदेव पूजा" का प्रावधान सनातन धर्म में किया था । ये देवी - देवता थे -- शिव , विष्णु , पार्वती , गणेश और सूर्य । तभी से एक ही मंदिर में पांच देवी - देवताओं की पूजा - अर्चना का कार्यक्रम शुरू हुआ था और जो अब तक चला आ रहा है । कालांतर में गणेश और सूर्य के नाम गौण बनकर रह गए और उनमें से तीन सम्प्रदाय या पंथ सबसे अधिक शक्तिशाली और लोकप्रिय बनकर उभरे --- शैव , वैष्णव और शाक्त। दशनाम गोस्वामी मूलतः शैव हैं । ये भगवान शिव को अपना आराध्य देव और उत्पत्तिकर्त्ता मानते हैं । इनका मानना है कि ब्रह्मा और विष्णु की उत्पत्ति भगवान शिव से हुई है । इसके लिए ये शिव पुराण और लिंग पुराण से उदाहरण प्रस्तुत करते हैं । ये कहते हैं कि शिव ही सृष्टि के रचियता हैं , वे भी सृष्टि के पालनहार हैं और वे ही सृष्टि के विनाशक हैं । शिव नित्य और स्थायी हैं । वे काल के द्वारा सीमित नहीं हैं । भगवान शिव सर्वज्ञ और सर्वव्यापी हैं । उनकी लीला अपरम्पार हैं । गोस्वामी लोग शिव को निर्गुण और सगुण दोनों रूपों में पूजते हैं । गोस्वामियों का मानना है कि भगवान शिव सबसे पहले संन्यासी या योगी थे लेकिन वे गृहस्थ भी थे क्योंकि पार्वती उनकी पत्नी थी और दो पुत्र थे -- कार्तिकेय और गणेश। दशनाम गोस्वामियों को प्राचीन काल में संन्यासी कहा जाता था और कालांतर में वे गृहस्थ भी बने । आज दशनाम गोस्वामी समाज में दोनों धाराएँ देखने को मिलती हैं -- विरक्त गोस्वामी और गृहस्थ गोस्वामी । विरक्त गोस्वामी मठों या अखाड़ों में रहकर आजीवन ब्रह्मचारी एवं अविवाहित रहते हैं । उन्हें विवाह करने संतान उत्पन्न करने की मनाही होती है । उनका उत्तराधिकारी उनका चेला होता है । गृहस्थ गोस्वामियों को विवाह करने और संतान उत्पन्न करने की आज्ञा होती है। उनके उत्तराधिकारी उनके बच्चे होते हैं। दशनाम गोस्वामी लोग शिव और शक्ति ( पार्वती ) -- दोनों को ही मान्यता देते हैं । ये यह भी मानते हैं शक्ति ( अर्थात पार्वती ) तो भगवान शिव की पत्नी थी । ये यह भी मानते हैं कि शक्ति के कई रूप हैं जैसे -- सती , पार्वती , काली , दुर्गा , चामुंडा , लक्ष्मी , ब्रह्माणी इत्यादि । इनका कहना है कि शिव और शक्ति के मेल द्वारा सृष्टि चलती है । शिव को पुरुष और शक्ति को प्रकृति माना गया है । शिव और शक्ति एक दूसरे के पूरक हैं । बिना शिव के शक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है और शक्ति के बिना शिव शव हैं। वैसे तो दशनाम गोस्वामी लोग शैव हैं परंतु ये शक्ति ( अर्थात देवी , दुर्गा , चामुण्डा , पार्वती इत्यादि ) को भी मानते हैं । ये शिव और पार्वती की भी पूजा करते हैं । ये शिवरात्रि पर शिव का व्रत रखते हैं तो साथ ही नवरात्रों में देवी व्रत का पालन करते हुए नौ दिनों तक उपवास रखते हैं। शिव का पूजन अत्यंत सरल है । मंत्र बोलकर शिवलिंग पर जल , दूध और बेलपत्र चढ़ाकर शिव के पूजन को पूर्ण मान लिया जाता है । लेकिन शक्ति का पूजन आसान नहीं है । इसके लिए भारी तामझाम की ज़रूरत पड़ती है । कुछ लोग मंत्रों और व्रतों का सहारा लेते हैं और जादू - टोना करते हैं । पशुओं की बलि भी दी जाती है । अतीत में नरबलि भी दी जाती थी । बंगाल , असम , त्रिपुरा में -- विशेषकर कामाख्या मंदिर में आज भी ऐसा देखने को मिलता है । कामाख्या मंदिर तो जादू - टोना का गढ़ माना जाता है । वहां ऐसे अनेक साधु , तांत्रिक , अघोरी घूमते मिल जायेंगे । प्राचीन काल में तांत्रिक और अघोरी लोग पंच मकारों को मान्यता देते थे । मंच मकार थे --- मद्य , मदिरा , मीन , मैथुन और मुद्रा । ध्यान देने की बात यह है कि गोस्वामियों में अघोरी नहीं होते हैं । गोस्वामी तो एकदम शुद्ध , सात्विक और पवित्र लोग होते हैं । गोस्वामी लोग अघोरियों को अपने पास तक नहीं फटकने देते हैं । अघोरी तो तांत्रिक क्रिया के लिए मद्य , मदिरा , मीन , मैथुन और मुद्रा का प्रयोग करते हैं । वे श्मशान में लाश का भक्षण कर सकते हैं । अपने मल - मूत्र को भक्षण करने में भी उनको कोई गुरेज नहीं है। वे स्त्रियों के साथ रमण करते हैं । गोस्वामी लोग ऐसी क्रियाओं से कोई सरोकार नहीं रखते हैं । गोस्वामी लोग तो शक्ति के नाम पर व्रत रखते हैं , फलाहार का प्रयोग करते हैं । भगवती का भजन - कीर्तन करते हैं या रात्रि जागरण करते हैं । बहुत ही शुद्ध दैनिक चर्या गुजारते हैं । तन और मन को पवित्र रखना पड़ता है । किसी भी दुर्व्यसन में नहीं फंसते हैं। मांस , मदिरा और मैथुन का प्रयोग नहीं करते हैं । कन्याओं को देवी मानकर उनको भोजन कराते हैं , उनके पैर छूते हैं और उनको दक्षिणा देते हैं। उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि गोस्वामी लोग शैव और शाक्त दोनों हैं । गोस्वामियों के घरों में अक्सर शिव और शक्ति के चित्र ही मिलेंगे। 


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