प्रस्तुतिकरण - आदित्य रमेश भारती नीमच
सम् +नि +अस् + घञ् = संन्यास जिसका अर्थ होता है छोड़ना या त्यागना या सांसारिक विषयों एवं अनुरागों का परित्याग करना या वैराग्य धारण करना । ऐसे व्यक्ति को संन्यासी कहा जाता है । संन्यास धारण करना या संन्यासी बनना कोई आसान कार्य नहीं लेकिन आजकल लोग संन्यास शब्द को हल्के-फुल्के अर्थ में लेते हैं । मान लो कि किसी क्रिकेटर ने सदैव के लिए क्रिकेट को छोड़ दिया तो टीकाकार बयान देते हैं कि अमुक खिलाड़ी ने क्रिकेट से संन्यास ले लिया । कभी -कभी तो टिप्पणी सुनकर हंसी आती है या गुस्सा आता है जब मैंने यह सुना कि "वसीम अकरम ने क्रिकेट से संन्यास ले लिया है"। यह क्या ? मुसलमान का संन्यास से क्या लेना-देना ? टीकाकार को ध्यान करना चाहिए कि यह संन्यास शब्द का गलत इस्तेमाल है और यह भारतीय संस्कृति का अपमान है । संन्यास और संन्यासी दोनों ही बड़े पवित्र शब्द हैं । भारतीय संस्कृति में संन्यास को जीवन की अंतिम एवं सर्वोच्च स्थिति बताया गया है ।
संन्यास भी दो प्रकार के हैं -- वैदिक संन्यास और शैव संन्यास जबकि बहुत से विद्वान इन्हें एक ही मानने की भूल करते हैं । मैं पहले वैदिक संन्यास की बात करूँगा और फिर शैव संन्यास का वर्णन करूंगा ताकि पाठकगण इन दोनों के मूलभूत अंतर को जान सकें :--
आर्यों ने वैदिक व्यवस्था में मनुष्य के जीवन को चार भागों (आश्रमों ) में बांट रखा था -- ब्रह्मचर्य आश्रम ( बाल्यकाल से 25 वर्ष की आयु तक ) , गृहस्थ आश्रम ( 26 से लेकर 50 वर्ष की आयु तक ) , वानप्रस्थ आश्रम ( 51 से लेकर 75 वर्ष की आयु तक ) और संन्यास आश्रम ( 76 वर्ष से लेकर 100 वर्ष की आयु तक या मृत्यु होने तक ) । लगभग पांच वर्ष की आयु के बच्चे को उसके माता - पिता बच्चे को किसी गुरुकुल या शिक्षालय या गुरूगृह में भर्ती कराते थे । 25 वर्ष की आयु तक वहाँ उसे गुरु के संरक्षण में शिक्षा ग्रहण करनी होती थी । गुरू- शिष्य का रिश्ता पिता-पुत्र जैसा होता था । 25 वर्ष की आयु पूरी होने पर दीक्षांत समारोह होता था । विद्यार्थी अपनी कोई कीमती चीज ( धन या गहना ) गुरू को भेंटकर आशीर्वाद लेता था । यदि शिक्षार्थी की ऐसी सामर्थ्य नहीं होती थी तो वह केवल फूल-पत्तियों को भेंटकर आशीर्वाद लेता था । उस काल को ब्रह्मचर्य आश्रम कहते थे । उसे अपने घर भेज दिया जाता था । वहाँ पहुंचते ही उसके बारे में चर्चा शुरू हो जाती थी और उसे वैवाहिक बंधन में बांध दिया जाता था। वह बच्चे पैदा करता था और अपने पारिवारिक दायित्वों को निभाता था । उस काल को गृहस्थ आश्रम कहते थे । 50 वर्ष पूरे होने पर उसे गृहस्थ जीवन छोड़कर वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करना पड़ता था । उसके साथ उसकी पत्नी भी रह सकती थी । उसे फिर से पढ़ाई-लिखाई करनी होती थी क्योंकि माना जाता था कि 25 वर्षों तक गृहस्थ आश्रम में रहने के कारण पढ़ाई-लिखाई भूल गया होगा । गांव या नगर के निकट किसी पानी के स्रोत के पास वह अपनी कुटिया बनाता था । वह अपनी आवश्यकताओं को सीमित कर लेता था । वह ग्रामीणों से भोजन और वस्त्र मांगकर लाता था । वह अपना अधिकांश समय धर्म और आध्यात्म पर लगाता था । वह गांवों में जाकर धर्म और आध्यात्म का प्रचार करता था । लोगों को अच्छा जीवन बिताने के गुर सिखलाता था । 75 वर्ष की आयु को पार करते ही वह संन्यास आश्रम में प्रवेश कर जाता था । उस समय उसके साथ उसकी पत्नी का होना जरूरी नहीं था । वह अपनी आवश्यकताओं को अत्यंत सीमित कर लेता था । वह घने जंगलों या ऊंचे पहाड़ों या अंधेरी गुफाओं में रहता था । समाज या गांव से उसका सम्बंध नहीं रह पाता था । वह मोक्ष प्राप्ति की ओर अग्रसर होता था । वह कंदमूल खाकर गुज़ारा करता था । फिर वह केवल पानी पर गुज़ारा करता था और फिर ऐसा समय भी आता था कि वह पानी भी छोड़ देता था । और फिर उसकी जीवन लीला समाप्त हो जाती थी।
शैव संन्यास वैदिक संन्यास से बिल्कुल अलग है , श्रेष्ठ है और कठिन है । वैदिक संन्यास 75 वर्ष की आयु पूरा करने के बाद ही लिया जाता था जबकि शैव संन्यास लेने की आयु निश्चित नहीं थी । आदिशंकराचार्य ने मात्र आठ वर्ष की आयु में संन्यास ग्रहण कर लिया था ।
वैदिक संन्यासी एकांत में रहकर प्राण त्याग देता था । समाज के उत्थान में उसका कोई योगदान नहीं रह पाता था जबकि शैव संन्यासी जप, तप, योग, ध्यान, प्राणायाम का ज्ञान प्राप्त करके अपने ज्ञान और अनुभवों को लोगों के साथ साझा करते थे और लोगों को स्वस्थ रहने और चरित्रवान बनने के गुर सिखलाते थे ।
आदिशंकराचार्य ने कुम्भ पर शैव संन्यासियों के इकट्ठा होने की प्रथा डाली ताकि वहाँ हिन्दू धर्म के लिए नियम बनाये जायें या धर्म में आई कुरीतियों को मिटाया जा सके । 1300 वर्षों से यह प्रथा अभी भी जारी है । जबकि वैदिक संन्यासियों ने ऐसा कुछ नहीं किया ।
शैव संन्यासियों के अखाड़े धर्म की सेनाएँ ( बटालियन ) कहलाती थीं जिन्होंने हिंदू धर्म को बचाने के लिए विधर्मियों से अनेक बार युद्ध किये जबकि वैदिक संन्यासियों का ऐसा कोई रिकार्ड नहीं है । कालांतर में शैव संन्यासियों के अखाड़ों की नकल करके वैष्णव अखाड़े बने जिनकी संख्या तीन है ।
शैव संन्यासी अत्यंत देशभक्त रहे हैं । इन्होंने भारत की स्वतंत्रता और अखंडता की सदैव हिमायत की । आदिशंकराचार्य ने धर्म के आधार पर ही तो इस देश को एकता के सूत्र में बांधा था । बंगाल में दोहरे शासन ( सन् 1765- 1772 ई. ) के दौरान संन्यासियों का विद्रोह भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है , जबकि वैदिक संन्यासियों ने ऐसा कुछ नहीं किया।
शैव संन्यासी का जीवन बहुत कठिन होता है जिसे झेलना हर व्यक्ति के वश की बात नहीं है । उसे दिन में केवल एक बार ही भोजन करना होता है । यदि उसे किसी ने भोजन नहीं दिया तो उसे दिन भूखा ही रहना पड़ता है । उसे हर महिला को अपनी मां मानना पड़ता है । वह ऐसा कोई काम नहीं करता जिससे उसका संन्यास भंग हो क्योंकि इसका प्रायश्चित केवल मृत्यु है --जलकर या विषपान करके ।
संन्यासी भी हर एक को नहीं बनाया जाता । प्रत्याशी को कई वर्षों तक इंतजार करना होता है । गुरू उसके आचरण और व्यवहार पर कड़ी नज़र रखता है । जब गुरू को उस पर पूर्ण विश्वास हो जाता है तब उसे संन्यासी बनाया जाता है । संन्यासी का प्रक्षिक्षण कमांडो जैसा होता है । उसे अत्यधिक गर्मी, सर्दी को सहजता से स्वीकार करना होता है।
© महाग्रंथ "गोस्वामीनामा" से। लेखक- गिरिवर गिरि गोस्वामी निर्मोही, नयी दिल्ली, 9818461932
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