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गोस्वामियों को गर्त में किसने धकेला ?


जिस प्रकार मुसलमानों की दो मुख्य  धाराएं हैं -- सुन्नी और शिया -- हालांकि उनके दुनियाभर में  72 फिर्के ( वर्ग / प्रकार /  समूह / गुट / सम्प्रदाय ) हैं उसी तरह से   हिंदुओं की भी दो मुख्य धाराएँ हैं --- शैव एवं वैष्णव ---   हालांकि हिंदुओं के अनेक पंथ एवं सम्प्रदाय हैं जैसे -- जैन , बौद्ध , सिक्ख , शैव , वैष्णव , शाक्त , सूर्योपासक ,  गणेशोपासक , यमोपासक , चर्वाक , द्वैतवादी, अद्वैतवादी , वामाचारी , कापालिक , संन्यासी, योगी , अघोरी , आस्तिक , नास्तिक , तांत्रिक, वेदसमर्थक ( वेदनिहित ) , वेदविरोधी ( वेदविहित ) इत्यादि । 
                   जिस प्रकार शिया और सुन्नी एक - दूसरे के प्राणों के प्यासे रहे हैं ठीक उसी तरह  शैव और वैष्णव भी एक- दूसरे के कट्टर विरोधी रहे हैं , प्राणों के प्यासे रहे हैं । 
जो शिव को अपना इष्टदेव मानते हैं वे शैव कहलाते हैं और जो विष्णु को अपना इष्टदेव मानते हैं वे वैष्णव कहलाते हैं । वैष्णवों का सम्बंध आर्य सभ्यता से है जबकि शैवों का सम्बंध सिंधु नदी घाटी सभ्यता से हैं । शैव लोग अपने को भारत का मूल निवासी मानते हैं और वे वैष्णवों को विदेशी बताते हैं । 
                    अब से ठीक सौ साल पहले आर्य सभ्यता को भारत की प्राचीनतम सभ्यता माना जाता था लेकिन सन् 1922 ई० में खुदाई के दौरान जमीन से कई शहर ढूंढ़कर निकाले गये जैसे -- हड़प्पा , मोहनजोदड़ो इत्यादि जिनके आधार पर सिंधु नदी घाटी की सभ्यता का आविष्कार हुआ । उस खुदाई में विष्णु , लक्ष्मी , गणेश, राम , सीता , कृष्ण , परशुराम का कोई जिक्र नहीं है लेकिन वहाँ शिव की मूर्ति निकली है । शैव परम्परा सिंधु नदी घाटी से सम्बद्ध है । 
                          वैष्णव और शैव शुरू से ही एक - दूसरे के जानी दुश्मन रहे हैं । जब भी किसी को मौका मिलता था वह दूसरे पर हमला कर देता था और यहाँ तक कि प्राण तक ले लेता था । जिस प्रकार आर्यों ( वैष्णवों )  के पवित्र ग्रंथों को "वेद" कहा जाता है उसी प्रकार  शैवों के पवित्र ग्रंथों को "शैवागम" कहते हैं जिनकी संख्या 28 है लेकिन वैष्णवों ने इन्हें नष्ट कर दिया है । 
                प्राचीन काल में शैवों और वैष्णवों में भयंकर युद्ध हुए थे । अनेक ग्रंथों में इनका वर्णन है । फिल्मों और टीवी सीरियलों में भी ऐसा ही दर्शाया गया है जैसे -- ओइ्म नमो शिवाय , शिव महापुराण , देवों के देव महादेव इत्यादि । वैष्णवों ने भगवान शिव के लिए फक्कड़ , सांपधारी , श्मशानवासी , लंगोटधारी  इत्यादि अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया । यह शिव का रूतबा ही था कि  शिव ने वैष्णव कन्याओं ( सती , बाद में पार्वती ) से विवाह किये । वैष्णवों ने इसे अपना अपमान माना जिसके कारण सती के वैष्णव  पिता ने अपने यज्ञ में शिव को आमंत्रित नहीं किया और शिव के लिए अनुचित शब्दों का प्रयोग किया जिसका परिणाम यह निकला कि सती ने आत्मदाह कर लिया । ऐसी बातों से शैवों और वैष्णवों में सदैव खटास रही है । कालांतर में बड़ी मुश्किल से उनके सम्बंध पटरी पर लौटे । हालांकि सम्बंधों में ये खटास गाये - बगाहे मिल ही जाती है । 
                        आदि शंकराचार्य के समय में केवल ब्राह्मण लोग ही संन्यासी ( जिन्हें आजकल दशनाम गोस्वामी कहते हैं ) बनाये जाते थे । बादशाह अकबर के शासनकाल में क्षत्रियों के लिए भी संन्यासी अखाड़ों के द्वार खोल दिये । बाद में वैश्य लोग भी गोस्वामी बने । इस आधार पर ब्राह्मण लोग गोस्वामियों को "वर्णसंकर" बताते हैं जबकि असलियत यह कि ब्राह्मणों में भी मिश्रण है । मिस्र देश से आये विद्वान मिश्रा कहलाये । ऐसा दावा बहुत से ब्राह्मण करते हैं । 
                  ब्राह्मण लोग वैष्णव धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं जबकि दशनाम संन्यासी ( दशनाम गोस्वामी ) , नाथ ( योगी ) , लिंगायत , यति इत्यादि शैव धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं । 
                    ब्राह्मण ( वैष्णव ) यज्ञ और कर्मकांड को मान्यता देते हैं जबकि गोस्वामी लोग इन बातों में विश्वास नहीं करते हैं । दूसरे शब्दों में , ब्राह्मण कर्मकांडी हैं जबकि गोस्वामी लोग ज्ञानवादी हैं । ब्राह्मण लोग ( वैष्णव लोग ) कर्मकांड के द्वारा ईश्वर को प्राप्त करना चाहते हैं जबकि गोस्वामी लोग ज्ञान के द्वारा ईश्वर को प्राप्त करना चाहते हैं । ब्राह्मण लोग प्रवृत्तिवादी हैं जबकि गोस्वामी लोग निवृत्तिवादी हैं । ब्राह्मण लोग भोग में विश्वास करते हैं जबकि गोस्वामी लोग त्याग और वैराग्य के समर्थक हैं । ब्राह्मण लोग भागवत कथा करते हैं जबकि गोस्वामी लोग शिवकथा करते हैं । यज्ञों में पशुबलि दी जाती थी या दी जाती है जबकि गोस्वामी लोग हर प्रकार की हिंसा के विरोधी रहे हैं । शैवों के इष्टदेव शिव के पास तो पशुओं की भरमार है , अतः शिव को पशुपतिनाथ भी कहा गया है । वैसे पशु का अर्थ आत्मा से भी है । शिव के पास  नन्दी वाहन है और आभूषण के रूप में  गले में सर्प । शिव की अर्धांगिनी पार्वती है जिसे दुर्गा कहा जाता है और जिसका वाहन शेर है । शिव के बड़े पुत्र कार्तिकेय का वाहन मोर है जबकि शिव के छोटे पुत्र गणेश का वाहन मूषक ( चूहा ) है । विरोधी प्रकृति के पशु - पक्षी शिव के परिवार में रहते हैं । शेर बृषभ को खा सकता है , मोर सांप को खा सकता है , सांप चूहे को खा सकता है लेकिन ऐसा कुछ नहीं होता । सभी मिलजुलकर रहते हैं और कोई हिंसा नहीं होती है । 
                      शैव संन्यासी तो मठों और शिवालयों के पीठाधीश होते थे और असीमित सम्पति के मालिक होते थे । पूरे देश में ऐसे मठों और शिवालयों की भरमार थी । उन्हें "गोसाईं गद्दी" कहा जाता था जिसके मालिक को "महंत" कहते थे । 
मुगल बादशाह औरंगजेब की मृत्यु ( सन् 1707 ई० ) के पश्चात मुगल साम्राज्य कमज़ोर होकर बिखरने लगा था जिसका फायदा संन्यासियों ( गोस्वामियों ) ने उठाया । बंगाल में संन्यासियों ने मुसलमानों और अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किया जिसे इतिहास में "संन्यासी विद्रोह" ( 1769 -70 ) के नाम से जाना जाता है । संन्यासी इतने शक्तिशाली हो गए थे कि उन्होंने कई स्थानों पर अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली थी । जब अंग्रेजी सरकार ने उन पर ज्यादा दबाव बनाया तो वे दूसरे प्रदेशों में भाग गये । कुछ तो वहाँ मठ - मंदिरों के पुजारी या महंत बन गये । कुछ अच्छे व्यापारी सिद्ध हुए जबकि कुछों ने  वहाँ जागीरें खरीद लीं और जागीरदार बन गये । 
                    गोस्वामियों में दो धाराएँ देखने को मिलती हैं -- विरक्त और गृहस्थ । विरक्त को ही गोसाईं गद्दी पर बैठने का धार्मिक नियम रहा है । विरक्त को विवाह करने और संतान उत्पन्न करने की आज्ञा नहीं होती है । यदि वह ऐसा करता है तो भ्रष्ट एवं धर्मविरुद्ध माना जाता है । महंत को चेला बनाने का अधिकार होता है और महंत के बाद चेला ही गद्दी को संभालता है । महंत अपने जीवित रहते हुए ही चेला बनाता है । यदि वह ऐसा नहीं कर पाता है और उसकी मृत्यु हो जाती है तो उस क्षेत्र के विद्वानों , गणमान्यों , रईसों , जागीरदारों , धार्मिक संतों द्वारा उचित व्यक्ति का चुनाव होता है ।
पहले गोसाईं की गद्दी पर गोसाईं ही बैठता था । संन्यासियों ( गोसाइयों ) को समाज में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था । राजा हो या ब्राह्मण सभी संन्यासियों ( गोसाइयों ) के आगे नतमस्तक रहते थे । संन्यास धर्म में गुरू - शिष्य परम्परा अच्छी - खासी चल रही थी । अचानक ब्राह्मणों की शक्ति में वृद्धि हो गई जिससे गुरू - शिष्य परम्परा में आमूलचूल परिवर्तन आ गया । अब से लगभग दो सौ साल पहले नयी प्रथा चालू कर दी गई कि  "गोसाईं गद्दी पर ब्राह्मणों को शिष्य बनाकर महंत बनाया जाने लगा ।" बस, वहीं से गोस्वामी परम्परा को ग्रहण लग गया । ब्राह्मण लोग गोसाईं गद्दियों पर बैठकर गोसाइयों को दुत्कारने - फटकारने  लगे । अपने को उच्च और गोसाइयों को निम्न बताने लगे । उन्होंने संन्यास परपंरा को भी दाग लगा  दिया । महंत ( विरक्त ) को विवाह करने और संतान उत्पन्न करने की आज्ञा नहीं होती है लेकिन ब्राह्मणों से गोसाईं ( गोस्वामी ) बने लोगों ने विवाह किये और संतानें उत्पन्न कीं । विवाह भी एक नहीं बल्कि कई - कई  किये । बेटियों , बेटों , पोत्रों  , पौत्रियों की फौजें  खड़ी कर दीं । कइयों ने अन्तरजातीय विवाह किये और अन्तरधार्मिक विवाह भी ।
 संन्यासी बनने से पूर्व व्यक्ति की जाति होती है परन्तु संन्यासी बनने के बाद असली नाम , परिवार , गोत्र ,  गांव , जाति का उल्लेख करना वर्जित है लेकिन वे अपनी संतति को सब कुछ बताकर इस संसार से विदा हुए । परिणाम यह है कि गोस्वामी होकर भी उनके बच्चे अपने को भारद्वाज , वत्स , कौशिक , शांडिल्य , वशिष्ठ इत्यादि बता रहे हैं जबकि ये गोत्र तो गोस्वामियों में होते ही नहीं हैं । इस लिहाज से देखें तो ब्राह्मणों ने हमारे सत्यनाश मारने में कोई कसर नहीं छोड़ी है । बनिया हो या ठाकुर , जाट हो या अहीर  , कुम्हार हो या धोबी , गूजर हो या राजपूत  -- सभी जाति के लोग गोस्वामियों का बहुत सम्मान करते हैं लेकिन गोस्वामियों को देखकर ब्राह्मणों की नाक - भौं सिकुड़ जाती हैं ।
                       अपना सत्यानाश मारने में हम भी पीछे नहीं हैं ।  हम यह तो चाहते हैं कि हमको ब्राह्मणों से अधिक सम्मान मिले तो क्या हमने अपने अंदर ब्राह्मणों जैसी विद्वत्ता पैदा की है  ? विद्वता की बात तो दूर रही गोस्वामियों को अपने इतिहास और दर्शन का कतई ज्ञान नहीं है । अपने ऋषि गोत्रों और मढ़ियों तक की भी जानकारी नहीं है । विवाह भी घसड़म - पसड़म गोत्रों और मढ़ियों में कर रहे हैं । अज्ञानतावश  एक ही मढ़ी ( कुलगोत्र ) में विवाह करके पाप के भागी भी बन रहे हैं । ऐसी विसंगतियों को दूर करने के लिए ही तो मैंने अभूतपूर्व और अद्वितीय महाग्रंथ - "गोस्वामीनामा" -  का लेखन किया है ।
             सदा चढ़ावे पर ध्यान दिया लेकिन बच्चों को काबिल बनाने के बारे मे सोचा ही नहीं । बच्चे कक्षा नौवीं- दसवीं से आगे सरके ही नहीं । आगे पढ़ायें  तो क्यों , कोई नौकरी तो करानी नहीं है । बस , मंदिर का पुजारी ही  तो बनाना है । ज्यादा पढ़ - लिखने  की ज़रूरत ही क्या है -- धन खर्च होता है , आंखें खराब होती हैं ।  
पहले मंदिर पर  एक मालिक था , फिर दो बने , फिर चार और फिर बीस । हर हिस्सेदार के पास दो - चार हज़ार रूपये मासिक से ज्यादा नहीं आते । फिर घर का खर्च कैसे चले ? बच्चों की शिक्षा कैसे हो ? बच्चों के विवाह कैसे हों ? 
                           मठों और शिवालयों के पीठधीश भी अपने साथ और समाज के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं । उन्हें गोस्वामी इतिहास, दर्शन , आन , बान , शान का ज्ञान ही नहीं है । सभी तो नहीं ,  उनमें से कुछ तो ऐसे हैं कि भांग का गोला निगलकर या चिलम का कश लगाकर नशे में पड़े रहते हैं । भाड़ में जाये दुनिया और चूल्हे में जायें संस्कार !
                         लोगों की ओर से अब साधु - संतों का मान - सम्मान पहले जैसा रहा नहीं है । शैतानी दिमाग के लोग उपलब्ध हैं । कहीं साधु- संतों की हत्याएं की जा रही हैं तो कहीं उनको ज़िन्दा जलाया जा रहा है । समाज मूकदर्शक है और पुलिस बेबस है । अब महंत या पुजारी बनना भी खतरे से खाली नहीं है । 
उपरोक्त वर्णन से विदित है कि गोस्वामियों की दयनीय स्थिति के लिए जहां एक ओर ब्राह्मण लोग जिम्मेदार हैं वहीं यह भी मानना होगा कि ऐसी स्थिति के लिए स्वयं गोस्वामी लोग भी जिम्मेदार हैं । कारण मैंने बता दिये हैं , निदान आपको ढूंढ़ना है।

® गिरिवर गिरि गोस्वामी निर्मोही , नयी दिल्ली , 9818461932

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