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शैवधर्म ( Shaivism )


प्रस्तुतिकरण - आदित्य रमेश भारती नीमच

शैवधर्म भारत का ही नहीं बल्कि संसार का प्राचीनतम धर्म है। आर्य सभ्यता से पहले भारत में शैवधर्म प्रचलित था। शैवों का सम्बंध द्रविड़ सभ्यता और सिंधु सभ्यता से है जोकि आर्य सभ्यता से बहुत पहले की है। शैवों के इष्टदेव भगवान शिव हैं जिनको महादेव , देवों के देव ,  आदिदेव, अनार्यदेव माना जाता है। शिव आर्य देवता नहीं हैं। संसार का प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद है जिसमें शिव का कोई जिक्र नहीं है परंतु परवर्ती आर्य ग्रंथों में शिव का जिक्र 'रूद्र' के रूप में मिलता है। रूद्र को क्रोधी और विध्वंसक के रूप में जाना जाता है। कोई किसी को आसानी से तो मानता नहीं है । ताकत को सब प्रणाम करते हैं। यही बात शिव के बारे में है। आर्यों ने  शिव को हीन मानकर सदैव उनका  तिरस्कार किया लेकिन शिव ने अपने बल एवं प्रताप से उनको अपने सामने झुकने पर मजबूर कर दिया। शिव विवाह इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। आर्यों को बाध्य होकर अपनी कन्याओं ( पहले सती और बाद में  पार्वती ) के विवाह शिव से करने पड़े लेकिन उन्होंने मन से शिव कभी स्वीकार नहीं किया । तभी तो ससुराल में होनेवाले यज्ञ में शिव को बुलाया नहीं गया और क्रोध में सती ने यज्ञकुंड में कूदकर अपनी जान दे दी। रामायण काल,  महाभारत काल और पौराणिक काल में भगवान शिव का रुतबा देखते ही बनता है।

जैसे आर्यों के पवित्र ग्रंथ वेद हैं वैसे ही शैवों के ग्रंथों को 'शैवागम' कहा जाता है जिनकी संख्या 28 है। वैष्णवों ( ब्राह्मणों )  ने शैवागमों को नष्ट कर दिया है । अतः अब शैवागमों के दर्शन नही हो पाते हैं । काशी को शिव की नगरी माना जाता है । वहाँ पहले अनगिनत शैव मठ या शिवालय थे जिन पर केवल शैव संन्यासी ( दशनाम गोस्वामी ) ही पुजारी या महंत बन सकते  थे । लेकिन कालांतर में उन मठों और शिवालयों पर वैष्णवों ( ब्राह्मणों ) को कब्जा लिया और शैव संन्यासियों ( दशनाम गोस्वामियों ) को वहाँ से बेदखल कर दिया ।

काशी में भगवान शिव का एक विश्वप्रसिद्ध मठ ( मंदिर / शिवालय ) है जिसको मुगल सम्राट औरंगजेब ने तोड़ा था और उसके ऊपर ज्ञानवापी मस्जिद बनवाई थी जिसपर अब मुकदमेबाजी चल रही है । रामभक्तों के लिए जिस प्रकार अयोध्या का महत्त्व है और कृष्णभक्तों के लिए मथुरा का महत्त्व है ठीक उसी प्रकार शैवभक्तों के लिए काशी का महत्त्व है । अयोध्या को तो मुक्ति मिल गई है लेकिन अब काशी और मथुरा की बारी है । 

शैवधर्म में पूजा का ज्यादा तामझाम नहीं है । बड़े -बड़े यज्ञ करने की ज़रूरत नहीं है और ज्यादा धन खर्च भी नहीं होता है ।बस किसी शिवलिंग या ढेले पर बेलपत्र  चढ़ाकर और जल से अभिषेक कर सकते हैं । फूलों और पत्तियों को चढ़ाकर  भी काम चला सकते हैं । शैवधर्म में शिव और हनुमान की सबसे अधिक मान्यता है । हनुमान को शिव का ही अंश या रूप माना जाता है । शिव पूजा के लिए सोमवार को सबसे अधिक शुभ एवं पवित्र माना जाता है । सावन के महीनों में सोमवार और भी अधिक शुभ माना जाता है । 

हनुमान को वैष्णव ( ब्राह्मण ) और शैव ( गोस्वामी ) दोनों ही पूजते हैं । लेकिन दोनों की पूजापद्धतियों में बहुत अंतर है । वैष्णव ( ब्राह्मण ) लोग हनुमान की पूजा मंगलवार को करते हैं और पूजा में घी का दीपक जलाते हैं जबकि शैव ( गोस्वामी ) लोग हनुमान की पूजा शनिवार को करते हैं और दीपक में घी के स्थान पर सरसों का तेल प्रयोग करते हैं । वे ये मानते हैं कि घी में चर्बी होती है जिसका प्रयोग वर्जित है।

शैवधर्म को अनेक शासकों ने अपनाया और इसको संरक्षण दिया। कुषाण शासक विम कदफिस शैवधर्म का अनुयायी था। नागवंश के शासक शैवधर्म को माननेवाले थे। गुप्तकाल में अनेक शिव मंदिर और मठ बने। वाकाटक वंश के शासक भी शैवमत को मानते थे। अंतिम हिंदू सम्राट हर्षवर्धन पहले शैव था लेकिन बाद में वह बौद्ध बना। आदिशंकराचार्य ( 788-820 ई.) ने शैवधर्म को बहुत बढ़ावा दिया। उस काल में शैव संन्यासियों का बड़ा बोलबाला था। राजपूत शासक शैवधर्म को बहुत मान्यता देते थे। जगन्नाथ पंडित ( शाहजहां के काल में ), भारवि,कालीदास, हारित इत्यादि शैव विद्वान थे। लिंगायत शैवों का एक सम्प्रदाय है । कर्नाटक तो लिंगायतों का गढ़ है। शैवधर्म नेपाल, तिब्बत, कोरिया, जावा, सुमात्रा,बाली, बोर्नियो ,श्रीलंका, जापान इत्यादि देशों में फैला। हम सब गोस्वामी लोग शैव हैं और शिव से अधिक किसी देवता को नहीं मानते। पूरे भारत में सैंकड़ों शिव ज्योतिर्लिंग हैं लेकिन उनमें से बारह ज्योतिर्लिंगों की अत्यधिक प्रसिद्धि है--सोमनाथ, मल्लिकार्जुन,महाकालेश्वर, ओंकारेश्वर, केदारनाथ,भीमशंकर, विश्वेश्वर, त्र्यंबकेश्वर, वैद्यनाथ, नागेश्वर, रामेश्वर, घुश्मेश्वर।

नेपाल की राजधानी काठमांडू में शिव का  पशुपतिनाथ मंदिर है जिसकी बड़ी मान्यता है । 


©महाग्रंथ "गोस्वामीनामा" से। लेखक-गिरिवर गिरि गोस्वामी निर्मोही,नयी दिल्ली ।

9818461932

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