प्रस्तुतिकरण - आदित्य रमेश भारती नीमच
प्राचीनकाल में गोस्वामी के अनेक नाम रहे हैं ,जैसे-- गोसाईं, बाबा, महंत, महाराज, रुद्रज, तापस, यति, शिरोरन्ध्रा, शिरोजन्मा इत्यादि। संन्यास परम्परा में गुरु- शिष्य परम्परा के दर्शन भी होते हैं । उस युग में गोस्वामी को संन्यासी भी कहते थे। उस काल में संन्यासी का दर्जा समाज में सर्वश्रेष्ठ माना जाता था। राजा हो या ब्राह्मण --सबके सब संन्यासी के सम्मुख नतमस्तक होते थे और संन्यासी के पैर छूकर उससे आशीर्वाद प्राप्त करते थे। संन्यासी को जगत का गुरू माना जाता था। तभी तो यह कहावत प्रचलित है कि --" जगत गुरू ब्राह्मण, ब्राह्मण गुरू संन्यासी और संन्यासी गुरू अविनाशी।" [अर्थात इस संसार का गुरू ब्राह्मण है, ब्राह्मण का गुरू संन्यासी है और संन्यासी का गुरू अविनाशी ( शिव ) है।] कहने का मतलब यह है कि संन्यासी ( गोस्वामी ) का कोई गुरू नहीं होता और यदि होता भी है तो वह गुरू कोई इंसान नहीं बल्कि स्वयं भगवान शिव हैं । प्राचीनकाल में जब दशनाम एक पंथ था तो शुरुआत में इसमें केवल ब्राह्मण ही संन्यासी बनते थे अर्थात ब्राह्मणों को शिष्य बनाकर संन्यासी बनाया जाता था । सैंकड़ों / हज़ारों सालों तक यही व्यवस्था चली । केरल ( चेर प्रदेश ) के निवासी आदि शंकराचार्य स्वयं एक नम्बूदरिपाद ब्राह्मण थे लेकिन वे शैव संन्यासी गोविंदपाद के शिष्य बने थे । मुगल बादशाह अकबर के शासन काल में इस व्यवस्था में भारी बदलाव आया । उसके शासन में मलंग फकीरों ( पीरों ) का बड़ा दबदबा था । इस्लाम को फैलाने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते थे । वे लोगों को बहला - फुसलाकर या प्यार से मुसलमान बनाने के लिए प्रेरित करते थे और जब उनकी यह तरकीब कामयाब होती नज़र नहीं होती थी तो वे जबर्दस्ती ऐसा कराते थे । कुछ प्रतिष्ठित हिंदुओं ने इकट्ठा होकर इस बात की शिकायत बादशाह अकबर से की तो अकबर ने उन्हें जवाब दिया था - "ये खुदा की गायें हैं । हम इनके काम में दखल नहीं दे सकते । हम इनको नहीं रोक सकते ।" ऐसा जवाब सुनकर हिंदुओं को निराश होकर लौटना पड़ा । लेकिन अकबर का यह जवाब शैव संन्यासी मधु सूदन सरस्वती को रास नहीं आया । उनका खून खौल उठा । उन्होंने एक बड़ा एवं दूरदर्शी निर्णय लिया । उन्होंने संन्यासियों के अखाड़ों के द्वार क्षत्रियों के लिए खोल दिये अर्थात क्षत्रियों को शिष्य बनाकर संन्यासी बनाया जाने लगा । कालांतर में वैश्यों को भी शिष्य बनाकर संन्यासी बनाया जाने लगा । इस प्रकार द्विजों ने संन्यासी बनने की दीक्षा ली। द्विज का अर्थ होता है--ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य। शूद्र वर्ग को कभी भी शामिल नहीं किया गया। द्विज वर्ग के लोग आकर संन्यासी के शिष्य बनते थे और अपने नामों के साथ दस उपनाम धारण करते थे। दस उपनाम हैं- वन, अरण्य, तीर्थ, आश्रम, गिरि , पर्वत, सागर, सरस्वती, भारती और पुरी। गुरू द्वारा शिष्य बनाने की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती थी और आज भी जारी है। शंकराचार्य के पद को सनातन धर्म ( हिंदू धर्म ) में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है लेकिन शंकराचार्य के पद पर आसीन होनेवाले व्यक्ति को भी दस उपनामों से कोई एक धारण करना अनिवार्य है। शंकराचार्य के पैरों को ब्राह्मण लोग छूते हैं। क्या किसी शंकराचार्य या संन्यासी को किसी ब्राह्मण के पैर छूते हुए आज तक क्या किसी ने देखा है ? उत्तर है-- कदापि नहीं। कुछ सालों से मैं एक उल्टी रीत देख रहा हूँ कि कुछ गोस्वामी लोग गुरमीत राम रहीम, आशाराम, रामपाल, शनि दाती महाराज, राधा स्वामी इत्यादि आश्रमों में जाकर उनके शिष्य बन रहे हैं। अरे, गोस्वामी तो गुरू होते हैं फिर ये किसी के शिष्य कैसे हो सकते हैं ? पंजाब में आज भी जाकर देख लो वहाँ के ब्राह्मण भी गोस्वामियों को गुरू मानते हैं। जितने भी नाम मैंनै ऊपर गिनाए हैं वे सभी शक के दायरे में हैं। उनके प्रणेताओं और आश्रमों पर पुलिस की छापेमारी हो रही है या हो चुकी है या भविष्य में होगी क्योंकि इनकी नीयत और गतिविधियों में गड़बड़ है। गोस्वामियों को चाहिए की वे गोस्वामी मठों या शैव समाधिस्थलों पर जायें। अपने समाज में बड़े - बड़े पहुंचे हुए संत- महंत हैं उनकी शरण में जायें। यह भी देखने में आया है कि गैर-गोस्वामी संतों की ही बदनामी हुई है, गोस्वामी संतों की नहीं। अपने सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक कार्यक्रमों में केवल गोस्वामी संत- महंतों को बुलायें और उनसे आशीर्वाद लें।
हमारे आदि शंकराचार्य तो "जगद्गुरु" कहलाये थे तो हम जगद्शिष्य बनने पर क्यों उतारूं हैं ? अपनी माताओं, बहनों और बेटियों को गुरमीत राम रहीम , शनि दाती महाराज, आशाराम, रामपाल जैसे पाखंडियों से बचाओ। ऐसे लोग हिंदू धर्म को कमज़ोर करने में लगे हुए हैं। ये धर्म के नाम पर कलंक हैं।
कृपया मेरी बात पर विचार करें और इस संदेश को अधिक से अधिक गोस्वामियों तक पहुंचायें।
जय गोस्वामी ! जय दशनाम !!
विशेष :- कृपया नोट करें कि मेरा यह लेख बड़ी तेज़ी से वायरल हो रहा है । कुछ लोग इस लेख से मेरा नाम हटाकर अपना नाम दर्शा रहे हैं जो कि बिल्कुल ही गलत है और गैर कानूनी भी है । कृपया ऐसा न करें । यदि आप इस लेख को और अधिक प्रकाशित या प्रचारित करना चाहते हैं तो आपका हृदय से स्वागत है लेकिन लेख के साथ मेरा नाम तो अवश्य रहने दीजिए ।
© महाग्रंथ "गोस्वामीनामा" से उद्धृत । लेखक :- गिरिवर गिरि गोस्वामी निर्मोही, नयी दिल्ली, 9818461932
2 टिप्पणियाँ
गोस्वामी जी आपके प्रयास सराहनीय है, आपकी ये जानकारियाँ आने वाली पीढ़ी के लिए धरोहर साबित होगी।
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत शुभकामनाएं
नमस्ते सर यह तो केवल आपके मार्गदर्शन एवं आशीर्वाद से ही सम्भव होगा। आपका यह स्नेह हमेशा बना रहे।
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