भारतीय समाज में दो प्रकार के गोस्वामी हैं--वैष्णव गोस्वामी एवं शैव गोस्वामी । वैष्णव गोस्वामी अपने को शुद्ध ब्राह्मण मानते हैं और इनके इष्टदेव भगवान विष्णु हैं जबकि शैव गोस्वामियों को दशनाम गोस्वामी कहा जाता है और इनके इष्टदेव भगवान शिव हैं। वैष्णव संत माथे पर तीन रेखाओं से युक्त लम्बाकार वैष्णव टीका लगाते हैं जो कि अंग्रेजी के अक्षर V के समान होता है । उनके वस्त्र पीत ( Yellow ) रंग के होते हैं । वे "हरि ओइ्म" या "वासुदेवाय नमः" या "राम - राम" या "जय श्रीराम" या "जय श्री कृष्ण" या "जय राधेश्याम" बोलते हैं जबकि गोस्वामी संत तीन रेखाओं से युक्त क्षितिजाकार शैव टीका लगाते हैं । उनके वस्त्रों का रंग भगवा होता है । वे "ओइ्म नमो नारायण" या "ओइ्म नमः शिवाय" या "हर हर महादेव" बोलते हैं । वैष्णव पंथ या धर्म तो बहुत पुराना है लेकिन वैष्णव गोस्वामियों की उत्पत्ति अब से 500 - 600 वर्ष पहले हुई थी जबकि शैव गोस्वामियों की उत्पत्ति बहुत पुरानी है । बादशाह अकबर के शासनकाल में वैष्णव गोस्वामियों के नामों का उल्लेख मिलता है। ब्राह्मणों के 52 ऋषि गोत्र हैं लेकिन उनमें कहीं भी गोस्वामी का नाम नहीं है। सवाल यह उठता है कि आखिर ये वैष्णव गोस्वामी कहाँ से आ गये ? वैष्णव गोस्वामी अपने को "वैष्णव गोसाईं" भी बोलते हैं। वैष्णव गोस्वामी केवल बंगाल, मथुरा, वृन्दावन और पंजाब में पाये जाते हैं जबकि शैव गोस्वामी अर्थात दशनाम गोस्वामी पूरे भारत में मिलते हैं। दशनाम गोस्वामियों की संख्या वैष्णव गोस्वामियों से कई गुना अधिक है। बंगाल के श्री चैतन्य महाप्रभु का नाम वास्तविक नाम विश्वम्भर मिश्र था जो कि वैदिक ब्राह्मण थे । उन्होंने बंगाल में "गोसाईं संघ" की स्थापना की थी । बहुत कम लोग जानते हैं कि उनके दो गुरू थे - - दशनाम शैव संन्यासी ईश्वर पुरी और दशनाम शैव संन्यासी केशव भारती । लोग मुझसे अक्सर पूछते ही रहते कि वैष्णव गोस्वामियों और शैव गोस्वामियों ( दशनाम गोस्वामियों ) में क्या अंतर है ? अंतर तो मैंनै इसी लेख में ऊपर बता ही दिया है लेकिन अब उत्पत्ति के बारे में बताता हूँ । शैव गोस्वामी अपनी उत्पत्ति भगवान शिव से बताते हैं और उनका इतिहास बहुत पुराना है लेकिन वैष्णव गोस्वामियों की उत्पत्ति तो केवल 500 - 600 साल पुरानी मानी जाती है और उनकी निकासी शैव गोस्वामियों ( दस नाम धारणकरनेवाले तीर्थ, आश्रम, वन,अरण्य, गिरि, पर्वत, सागर, सरस्वती, भारती, पुरी ) से हुई है । शैव संन्यासियों ( अर्थात शैव गोस्वामियों अर्थात दशनाम गोस्वामियों ) के पास बंगाल में बड़े-बड़े मठ होते थे और उन मठों के पास लम्बी - चौड़ी जायदादें होती थीं । मठ के अधिपति को 'महंत' कहा जाता था । महंत के उपनाम उपरोक्त दस नाम ही हो सकते थे। बंगाल में यह प्रथा चल पड़ी कि महंत की मृत्यु के पश्चात महंत की पीठ ( गद्दी, आसन ) पर ब्राह्मण कुलोत्पन्न लोगों को चेला बनाकर उस पर आसीन करने लगे। बस वहीं से वैष्णव गोस्वामियों की उत्पत्ति हुई। वे चेले गुरू का उपनाम धारण करके उस पीठ के स्वामी बन गये । ऊपर से दिखाने के लिए वे शैव गोस्वामी ( अर्थात दशनाम गोस्वामी ) बने रहे लेकिन अंदर ही अंदर उन्होंने ब्राह्मणत्व को आगे बढ़ाया और अपने को ब्राह्मण प्रचारित करने में लग गये। बंगाल से निकलकर बाद में वे मथुरा , वृंदावन में जा बसे जोकि अपने को 'गोसाईं' बताते हैं परंतु ब्राह्मण होने का दावा करते हैं। पंजाब के गोस्वामियों की कहानी कुछ हटकर है। मुस्लिमकाल में मुस्लिम आतयायियों ने हिंदू पूजास्थलों को भारी नुकसान पहुंचाया था । अत: संन्यासी लोगों ( शैव लोगों अर्थात दशनाम गोस्वामियों ) ने अपने पूजास्थल दुर्गम पहाड़ों पर बनाए ताकि मुसलमान वहां न पहुंच सकें। कालांतर में उन शैव गोस्वामियों के विवाह ब्राह्मणों के साथ हो गए जिसमें वैष्णवों और शैवों दोनों के गुण मौजूद थे और वे "वैष्णव गोस्वामी" कहलाये । देश की आजादी के समय यू.पी.,बिहार ,राजस्थान के दशनाम गोस्वामियों की आर्थिक स्थिति अत्यंत दयनीय थी जबकि पंजाब के गोस्वामियों की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी। अत: वहां के गोस्वामियों ने अपने को ब्राह्मण बताना श्रेष्ठकर माना । आज भी वहाँ के गोस्वामी अपने को दशनाम से अपने को न जोड़कर पंजाबियों या सिक्खों से जोड़ना बेहतर समझते हैं। कुछ तो पगड़ी पहनकर और केश धारण करके सिक्ख ही बन गये हैं । हरियाणा, मेरठ , मुजफ्फरनगर , बागपत में जाटों के प्रभाव के अंतर्गत बहुत सारे गोस्वामी लोग अपने नामों के साथ 'सिंह' उपनाम लगा रहे हैं जबकि गोस्वामियों में ऐसा कोई उपनाम है ही नहीं। एक बात और बतानी है । कुछ दशनाम गोस्वामी अपने ऋषि गोत्र वशिष्ठ, भारद्वाज , वत्स , कौशिक , शांडिल्य , तिवारी , पांडेय इत्यादि लिख रहे हैं या बता रहे हैं । इसका भी एक कारण है । कुछ ब्राह्मण लोग भी दशनाम पंथ में शामिल हुए थे जिनके उपरोक्त ऋषि गोत्र थे । दशनाम गोस्वामियों को अतीत में शैव संन्यासी कहा जाता था । संन्यास का यह पक्का सिद्धांत है कि संन्यास से पूर्व के गोत्र , जाति , गाँव , परिवार , रिश्ते - नातों को भुलाना पड़ता है । इनका उल्लंघन करना संन्यास का उल्लंघन करना माना जाता है । लेकिन कुछ लोगों ने इस नियम का अंदर ही अंदर उल्लंघन किया । वे गुप्त रूप से अपनी संतानों को बताते रहे कि "वे पहले ब्राह्मण थे और बाद में गोस्वामी बने थे" । वे अपनी संतानों को अपनी जाति , गोत्र को बताते रहे । ऐसे अनेक उदाहरण मैं पेश कर सकता हूँ। उदाहरण के लिए नागपुर के रियासतदार स्व. श्री महेश पुरी दशनाम में दीक्षित होने से पूर्व तिवारी ब्राह्मण थे लेकिन दशनाम संन्यासी स्व. रामकृष्ण पुरी की गद्दी पर विराजमान होकर वे महेश पुरी कहलाये । जहांगीराबाद ( जिला बुलंदशहर , उत्तर प्रदेश ) के मठ के महंत थे छत्तर गिरि जो कि महंत बनने से पहले छत्तर शर्मा थे । वर्तमान में एक उदाहरण बिहार से है । बिहार के विद्यापति धाम के महंत और उनके परिवार के लोग अपने नामों के साथ "गोस्वामी भारद्वाज" लिख रहे हैं या बता रहे हैं क्योंकि उनके पूर्वज भारद्वाज ब्राह्मण थे जो कि संन्यासी ( दशनाम गोस्वामी ) बन गये थे । पूर्वांचल, बिहार , मध्य प्रदेश के दशनाम गोस्वामियों की यही कहानी है । वे अपने को ब्राह्मण बताने में अपनी शान समझते हैं । दूसरी बात यह है कि उनमें से अधिकांश गोस्वामी पुरोहिताई का काम करते हैं और पुरोहिताई तो तभी चलेगी जब वे अपने को ब्राह्मण बतायेंगे । भारत के अधिकांश प्रदेशों में गोस्वामयों को ओ.बी.सी. का दर्जा प्राप्त हो गया है लेकिन पूर्वांचल , बिहार और मध्य प्रदेश के गोस्वामी अभी भी अपने को ओ. बी. सी. मानने को तैयार नहीं हैं । |
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