प्रस्तुतिकरण - आदित्य रमेश भारती नीमच
प्राचीन काल में दशनाम गोस्वामियों को शैव संन्यासी कहा जाता था । वे घरबार और समाज को त्याग कर घने जंगलों और अंधेरी गुफाओं में रहते थे या ऊंचे - ऊंचे पहाड़ों पर बर्फीली कंदराओं में रहते थे । समाज से उनका कोई लेना - देना नहीं होता था । वे वहीं रहकर ज्ञान प्राप्त करते थे और मुक्ति का मार्ग खोजते थे ।
कालान्तर में उनके जीवन में भारी बदलाव आया । वे जंगलों , गुफाओं और पहाड़ों को छोड़कर इंसानी बस्तियों के निकट जाकर बस गये । उन्होंने वहाँ मठ - मंदिरों का निर्माण किया । वे मठों , शिवालयों और मंदिरों के पुजारी एवं महंत बन गए । वे वहाँ लोगों को धार्मिक उपदेश देते थे , आशीर्वाद देते थे और मुक्ति का मार्ग सुझाते थे । कालान्तर में उन्होंने वे सब व्यवसाय अपना लिए जिन्हें समाज में रहकर ब्राह्मण करते थे लेकिन वे कर्मकांड के सदैव विरोधी रहे । वे ब्राह्मणों से भिन्न ज्ञानमार्गी रहे ।
शास्त्रों में ब्राह्मणों के छ: कार्य बताये गये है --- वेद अध्ययन करना एवं कराना , पढ़ना एवं पढ़ाना और दान लेना एवं दान देना । उसी पैटर्न पर शैव संन्यासियों ( गोस्वामी लोगों ) के व्यवसाय थे -- मठों और शिवालयों में महंत या पुजारी बनना, दान लेना-दान देना, पढ़ना - पढ़ाना, कथा- कीर्तन करना, उपदेश देना , आशीर्वाद देना इत्यादि ।
शैव संन्यासी अखाड़ों में दशनामधारक गोस्वामी संन्यासी होते थे । एक अखाड़े में सैंकड़ों या हज़ारों धर्म सैनिक ( नागा संन्यासी ) रहते थे । अखाड़ों का अर्थ है "धार्मिक सैन्य टुकड़ियाँ" [ Religious Military Troops ] . अखाड़े की व्यवस्था को चलाने के लिए बहुत सारे धन की आवश्यकता पड़ती थी । मठों और अखाड़ों को राजाओं , जागीरदारों , जमीनदारों और धन्ना सेठों की ओर से आर्थिक सहायता मिलती थी । उन्हें भूखंड और जागीरें भी मिलती थीं जिन्हें वापस लेना पाप माना जाता था । ऐसा कर्नल टॉड द्वारा लिखित "राजस्थान के इतिहास" में पढ़ने को मिलता है । दिल्ली - अजमेर के महान हिंदू शासक पृथ्वीराज चौहान की ओर से शैव संन्यासी अखाड़ों को भरपूर राजसी सहायता मिलती थी । कालांतर में अखाड़ों का बजट बहुत बढ़ गया और खर्च चलाना मुश्किल हो गया और अखाड़ों को भरपूर आर्थिक सहायता नहीं मिली । ऐसी स्थिति में अखाड़े के संन्यासी दो भागों में बंट गये -- लड़ाकू संन्यासी और रसद जुटानेवाले संन्यासी । लड़ाकू संन्यासियों का काम केवल युद्ध करना था जबकि रसद जुटानेवाले संन्यासी व्यापार में उतर गये । वे चीन , तिब्बत , भूटान और कश्मीर से केशर ,कस्तूरी , मेवा और जड़ी -बूटियां लाकर सात-आठ नदियां पार करके माल को दक्षिण भारत तक पहुंचाते थे । उस समय ऐसा करना बड़ा जोखिम भरा था । चोरों , डकैतों और जंगली जानवरों से सामना करना पड़ता था । यातयात के साधन नहीं थे और दुर्गम मार्ग थे । उनका व्यापार चल निकला । उन्होंने देशभर में अपने संघ स्थापित कर लिए । उन्होंने सबसे पहला व्यापारिक केन्द्र ज्वालामुखी ( हिमाचल प्रदेश ) में बनाया । मुगल बादशाह औरंगजेब को वह सब रास नहीं आया । उसने संन्यासी संघों पर जजिया कर ठोक दिया तथा उन पर तरह - तरह के प्रतिबंध लगा दिये । अत: मजबूर होकर संन्यासियों को ज्वालामुखी और पंजाब को छोड़ना पड़ा और वे भारत के विभिन्न नगरों में जा बसे । वहां वे मठों पर महंत रहे और साथ ही साथ उन्होंने वहाँ आढ़त की दुकानें खोल लीं । काशी , हैदराबाद ( दक्षिण) , पूना , कल्याण , कच्छ ,मांडवी , उदयपुर, मालवा में उन्होंने पक्के ठिकाने बना लिये । कहा जाता है कि उस समय काशी में 1484 मठ थे । सारे काशी क्षेत्र पर संन्यासी छाये हुए थे। तभी तो एक कहावत बड़ी प्रसिद्ध रही है --"रांड , सांड , सीढ़ी , संन्यासी -- इनसे बचे तो सेवै काशी।" रामेश्वरम , मद्रास , पूना , शोलापुर , नागपुर , कोल्हापुर , काशी, हरिद्वार , ज्वालामुखी , कश्मीर , बोधगया , राजशाही , मालदा आदि में उनका व्यापार चलता था । ब्रिटिश सरकार और भोट सरकार को उनके साथ व्यापारिक सम्बंध स्थापित करने पड़े थे ।
दूसरी ओर , बंगाल के द्विशासन (सन् 1765-72 ई०) के दौरान गोस्वामी संन्यासियों ने विद्रोह किया था जिसे "संन्यासी विद्रोह" के नाम से इतिहास में जाना जाता है । बंगाल में वे कई स्थानों पर अपनी स्वतंत्र स्थापित करने में भी सफल रहे थे । बाद में जब उन पर अंग्रेजी सरकार ने ज्यादा दबाव बनाया तो वे अपने धन को लेकर राजस्थान और दक्षिण भारत में चले गये और व्यापार में लिप्त हो गये । हैदराबाद और महाराष्ट्र के कई गोस्वामी रेशम और हीरे-मोती का काम करते थे । हैदराबाद और मद्रास के कई गोस्वामी तो राजा भी कहलाते थे । वे इतने धनी थे कि वे नवाबों और जागीरदारों को भी कर्ज़ देते थे । हैदराबाद के निज़ाम ( मुगल साम्राज्य के दक्षिण भारत का गवर्नर ) ने भी उनसे कर्ज़ ले रखा था। जब कर्ज़ लौटाने की बारी आई तो गोस्वामी महाजनों पर छापे मारे और उनकी रकमें वापस नहीं कीं ।
कई लोगों को "संन्यासी और व्यापार" की मेरी यह बात पच नहीं पा रही होगी । संन्यासी बाबा रामदेव का उदाहरण सबके सामने है जिन्होंने कमाने के क्षेत्र में देशी ही नहीं बल्कि विदेशी कंपनियों को भी पछाड़ दिया है और एक बड़ा आर्थिक साम्राज्य खड़ा कर दिया है । कभी ऐसे ही थे हमारे पूर्वज ।
© महाग्रंथ "गोस्वामीनामा" से । लेखक - गिरिवर गिरि गोस्वामी निर्मोही , नयी दिल्ली । 9818461932
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