प्रस्तुतिकरण - आदित्य रमेश भारती नीमच
हमारा देश भारतवर्ष ऋषि-मुनियों का देश कहलाता है। प्राचीनकाल में ऋषि-मुनियों को समाज में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। वे समाज को दशा और दिशा प्रदान करते थे। उनके सम्मुख समाज का हर वर्ग नतमस्तक था भले ही राजा हो या रंक। उनकी आज्ञा शिरोधार्य थी । कोई भी व्यक्ति उनकी आज्ञा की अवहेलना नहीं कर सकता था। राजा को ऋषि-मुनियों को दण्डित करने का अधिकार नहीं था। ऋषि-मुनि समाज के मस्तिष्क माने जाते थे। उनका समाज में बड़ा मान-सम्मान था। उन्होंने ही बड़े-बड़े ग्रंथ और धर्मशास्त्र लिखे । उन्होंने ही ब्रह्मांड के रहस्यों को उजागर किया। आध्यात्म, धर्म, ज्योतिष, विज्ञान, कला, नृत्य, संगीत, दर्शन --हर क्षेत्र में उन्होंने अपनी उपस्थिति दर्ज की। लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि ऋषि और मुनि अर्थ ,कार्य और सोच के आधार पर एक नहीं हैं। दोनों बिल्कुल अलग-अलग हैं। अत्यंत खोजबीन करने और ज्ञान के समुद्र की अत्यंत गहराई में जाकर मैं यह खोज लाया हूँ कि ऋषि- सम्प्रदाय और मुनि- सम्प्रदाय बिल्कुल भिन्न विचारधाएं हैं। आओ, इस बात को विस्तार से जानें :---
'ऋषि' शब्द का मौलिक अर्थ है 'मंत्र-द्रष्टा' । तु० "ऋषिर्दर्शनात। स्तोमान् ददर्शेत्यौपमन्यव:" (निरुक्त 2/11 )। वैदिक वाड़्मय में 'ऋषि' शब्द का अर्थ यही है। ' मुनि' शब्द का प्रयोग इस अर्थ में नहीं होता। "मधु मांसं च ये नित्यं वर्जयन्तीह धार्मिका: । जन्मप्रभृति मद्यं च सर्वे ते मुनयः स्मृता:।"(महाभारत, अनुशासनपर्व , 115/ 79 )। "दु:खेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृहः । वीतरागभयक्रोध: स्थिधीर्मुनिरुच्यते ।।" ( गीता, 2/56 ) इत्यादि प्रमाणों के अनुसार 'मुनि' शब्द के साथ ज्ञान, तप, योग, वैराग्य जैसी भावनाओं का गहरा सम्बंध है। जैन साहित्य में 'मुनि' का ही प्रयोग हुआ है। हां, पुराण आदि , जिनका आधार वैदिक तथा वैदिकेतर धाराओं के समन्वय पर है, उक्त दोनों शब्दों का प्रयोग मिले-जुले अर्थ में पीछे से होने लगा था, जो स्वाभाविक ही था।
ऋषि स्वभावतः प्रवृत्तिधर्मी , अतएव् गृहस्थ ( तु० "अयं पंथा महर्षीणाम् " , महाभारत, शांतिपर्व, 12/13 ; तथा "ऋषयो गृहमेधिन:" ) होते थे, जबकि मुनि निवृत्तिधर्म के अनुयायी थे।
ऋषि सम्प्रदाय का झुकाव ( आगे चलकर ) हिंसामूलक मांसाहार और तन्मूलक असहिष्णुता की ओर रहा है ; वहीं दूसरी ओर मुनि सम्प्रदाय का अहिंसा तथा तन्मूलक निरामिषता एवं विचार - सहिष्णुता ( अथवा अनेकान्तवाद ) की ओर रहा है।
ऋषि सम्प्रदाय मांसाहार को वरीयता देता था , ऐसे अनेक उदाहरण ब्राह्मणादि वैदिक साहित्य तथा रामायण, महाभारत आदि के शतश: स्थलों से और उत्तर भारत के वैदिकधर्मियों के खान-पान के व्यवहार से होती है। तथापि दे० मुनि० 5/31-44 । और तु० "एतदु ह वै परमन्नाद्यं यन्मांस: ।" ( शतपथ ब्राह्मण 11/ 7/1/3 । "वेदा - - -हिंसा मया: - - -कर्ममार्गप्रवर्तका: ।" , "वेदधर्मेषु हिंसा स्यात " (देवी भागवत , 1/14/42 एवं 1/18/49 )। जबकि मुनि सम्प्रदाय शाकाहारी भोजन करता था-- तु० "चतुर्दश हि वर्षाणि वत्स्यामि विजने वने। कंदमूलफलैर्जीवन् हित्वा मुनिवदामिषम् ।" ( वाल्मीकि रामायण , 2/20/29 ) , तथा "क्व कंदमूलफलाशी शांतो वनवासनिरतो मुनिजन:" (कादम्बरी में महाश्वेता प्रकरण )।
ऋषि शब्द का प्रयोग वैदिक साहित्य में बार-बार हुआ है लेकिन मुनि शब्द का प्रयोग बहुत ही कम हुआ है। वैदिक संतों ने अपने को ऋषि माना जबकि अवैदिक संतों जैसे जैनों, बौद्धों, शैवों, शाक्तों ने अपने आप को मुनि कहलवाया , ऋषि नहीं।
ऋषि सम्प्रदाय ने जातिगत भेदभाव को बढ़ावा दिया जबकि मुनि सम्प्रदाय ने सामाजिक समरसता पर जोर देकर किसी भी प्रकार के भेदभाव का सदैव विरोध किया।
वैष्णव लोग ( ब्राह्मण लोग ) ऋषि सम्प्रदाय के प्रतिनिधि हैं जबकि शैव लोग ( गोस्वामी लोग ) मुनि सम्प्रदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं। वैष्णव लोग भगवान विष्णु को अपना इष्टदेव मानते हैं जबकि शैव लोग भगवान शिव को अपना इष्टदेव मानते हैं।
© महाग्रंथ "गोस्वामीनामा" से। लेखक- गिरिवर गिरि गोस्वामी निर्मोही, नयी दिल्ली, 9818461932
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